________________
बुलाराधना
१५९५
ऐसे एकेंद्रिय जातिके भेद हैं. उनमें भी अवांतर मे इस प्रकार है. अर्थात् पृथ्विकाकि छन्दीस भेद हैं, जलके मी वृष्टि, हिम, बर्फ, ओलें इत्यादि भेद हैं- अग्नीके भी प्रदीप, उल्मुक ज्वाला इत्यादि अनेक भेद हैं. वायुके भी गुंजा, वायु, मंडलिक बाबु वगैरह भेद हैं. इस तरह जांति कर्मके अनेक भेद होने से जातिरूपी तरंगों से यह संसारसमुद्र युक्त है ऐसा समझना चाहिये.
दुविहपरिणामवादं संसारमहोदधिं परमभीमं ॥
अदिगम्म जीवपोदो भभइ चिरं कम्म भण्डभरो ॥ १७७१ ॥ जीवपोतो भवभोधौ कर्मनाविकचोदितः ॥
जन्ममृत्युजरावर्ते चिरं भ्राम्यति संततम् ॥ १८४२ ॥
विजयोदया दुविधपरिणामवादे द्विविधाः शुभाशुभपरिणामा चांता यस्मिस्तं । परमभीमं अतिभयंकर । अदिगम्म प्रविश्य । जीवपोदो जीवपोतः भमयं चिरं चिरकालं भ्रमति । कम्मभण्डभरो कर्मद्रविणभारः । त्रिभिः संबंधः ॥ भवसंसारं निरूपयति ॥
मूलास -- दुविधा शुभाशुभाः । अदिगम्म प्रविश्य पोदं यानपोतं ।
अर्थ -- यह संसारसमुद्र शुभ और अशुभपरिणामरूप हवा से युक्त है और अतिशय भयानक है. इसमें जीवरूपी नौका कर्मरूपी द्रव्यसे युक्त होकर जब प्रवेश करती है तब चिरकालतक भ्रमण करती है.
एगविगतिगचउपचिदियाण जाओ हवंति जोणीओ
सव्वाउ ताउ पत्तो अनंतखुत्तो इमो जीवो ॥ १७७२ ॥
एकद्वित्रिचतुःपंचहृषीकाणामनंतशः ॥
जातयः सकला भ्रान्ता देहिना भ्रमतां भवे ।। १८४२ ॥
विजयोदया- एमविगतिगच उपचिदियाण नामकर्मगतिजात्यादिविचित्रमेवं तत्र जातिकर्म पंचविकल्प पदचतुःपयिंजातिविकल्पेन तासां जातीनामुदात् ॥ केंद्रित पर्यापभानो जीवा प्रयाविश नोच्यते । तेषामेकेंद्रियांदीनां योनय माश्रया बावरसुक्ष्मपर्याप्तकाख्या जीवद्रव्याणामिहाश्रयत्वेन विवक्षिताः ।
आश्वास
ف
१५९५