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नलाराधना
आश्वास
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मिथ्यात्वके दोषीका आचार्य वर्णन करते हैं
अर्थ- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रहत्याग ये आत्माके गुण हैं परंतु मरणसमयमें यदि ये गुण मिथ्यात्वसे युक्त हो जायेंगे तो कटवी तुंबीमें रक्खे हुए धके समान व्यर्थ होते हैं, फलरहित होते हैं.
विशेपार्थ-पाययुक्त होकर प्राणीके प्राणों का नाश करना हिंसा है. इस हिंसासे विरक्त हो जाना आया मानी जाती है. प्राणीको दुःख देनेवाले भाषणसे विरक्त होना सत्य है. अन्यजनोंके द्वारा नहीं दी गई वस्तु ग्रहण करना अचार्यत्रत है. मैथुनके त्यागका नाम ब्रह्मचर्य है, तथा यह धनादिक मेरा है ऐसा संकल्प मोहकर्मक उदयसे होता है उसको परिग्रह कहते हैं. उमसे निवृत्त होना अपरिग्रह-परिग्रइत्याग कहलाता है, ये अहिमादिगुण आत्माके परिणाम है अर्थात् धर्म हैं.
शंका-गुण दून्यके साथ हमेशा रहते हैं. ' सहभुवो गुणाः' ऐसा गुणक विषयमें आगमका वचन है. चैतन्य, अमृतित्व ये ही आत्माके गुण है. ये गुण कभी आत्मासे अलग नहीं होते हैं. इनको ही गुण कहना चाहिये. परंतु दिसादिकोसे जो विरक्तिस्प परिणाम है वे कादाचित्क है-अर्थात वे परिणाम मनुष्यपना, क्रोधादिकांके समान सदाही आत्मामें रहते नहीं है. अतः उनको गुणा कहना योग्य नहीं.
इस शंकाका उत्तर - गुणपर्ययवद्र्व्प म् ' इस सत्र में दोनोंका ग्रहण किया है अर्थात गुण और पर्यायको ग्रहण किया है. यहां गुणशब्द उपलक्षणवाचक समझना चाहिये. अर्थात वह ज्ञानादिगुणोंक समान अहिंसादिधमाका भी वाचक है, जैसे गोवलीपर्दम् ' इस शब्दोंस एक ही गोका दो शब्दोंसे ग्रहण करनेसे एकको व्यर्थता अर्थात् पुनरुक्तता आती है वह दूर करनेके लिये गोशब्दका अर्थ गाय करना पडता है. उसी तरह 'अहिंसादि गुणा' इस गाथाके शब्दसे यहां धर्ममात्रको गुण कहा है ऐसा समझना चाहिये.
कई तुंबी में रखा हुआ दुग्ध पित्तोपशमन करना, माधुर्य इत्यादि गुणोंसे हाथ धो बैठता है, अर्थात् पात्र के दोषसे धमें जैसे अफलता आती है वैसे ही मरणकालमें अहिंसादिगुण यदि मिथ्यात्वसे युक्त हो जायेगे तो उनसे आत्माको विजय वैजयंतादि पंचानुत्तरों में जन्म होना, लौकांतिकदेवत्व प्राश होना ऐसे २ सातिशय फल प्राप्त नहीं होते हैं. मिथ्यात्व दृषित अहिमादिकोंसे फक्त फलातिशय मिलता नहीं है ऐसा भी नहीं है प्रत्युत बे आत्मामें रहकर महादोषोंको भी उत्पन्न करते हैं.