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मूलाराधना
आश्चा
मयतण्हियाओ उदयत्ति मया मण्णंति जह सतण्हयगा।। सन्भूदंति असन्भूदं तध मणति मोहेण ।। ७२६ ॥ पिय सम्यक्त्वपीयूषं मिथ्यात्वाविषमुत्सृज ॥ निधेहि भक्तितश्चित्ते नमस्कारमनारतम् ।। ७५४ ॥ मिथ्यात्वमोहिताः सत्यमसत्यं जानते जनाः ।।
कुरंगा इव तृष्णार्ताः सलिलं मृगतृष्णकाम् ॥ ७५० ।। विजयोदया-मयसमिया भुगतष्णिकाशन आदिल्यरवमयो भौमेनोप्मणा संपृक्ता उच्यन्ते । ता अजलभूता: 1 मया मपर्णति उदर्गति । मृमा मन्यत उदकमिति । यथा सतण्डमा ताणायंतनोयनाः । तर पनन ! मृगा इच नरा अपि । असम्भूद सम्भूति मगर्णति मोहेण अत्तस्यौप सत्वमित्यवगमछन्ति दर्शनमोहन हेतुना।
स्वनिमितसनिधानाज्ञानस्य विपर्यासः स्यादिति दृष्टान्नेन समर्थयते
मुलारा-मयतणिहया गृगतृष्णाशब्देन भौमेनोप्मणा संपृक्ताः सूर्यरश्मय उपर्यते । उदयत्ति उदकमिति । सन्मदेवि सद्भनमिति । मोहेष दर्शनमोहेन ॥
अर्थ-हे क्षपक मुने : तू ऐसे मिथ्यात्त्रका त्यागकर और सम्यक्त्वकी आराधनामें अपनको स्थिर कर पंच परमेष्ठिऑके नमस्कारसे, ज्ञानाराधनामें और बताभ्यासमें तू दृढ हो.
जो वस्तु जिस स्त्ररूपका धारक नहीं है ज्ञान उसको अन्यरूपसे कैसा जानेगा ? इस शंकापर आचार्य उत्तर देते हैं--- ज्ञान विपरीतभी होता है क्योंकि उसको विपरीत करनेके कारण मिलते हैं. इसका स्पष्टीकरण
अर्थ-मर्यके प्रचंड किरणोंसे जब जमीन अत्यंत गरम हो जाती है. तच उसकी उष्णता सूर्यके किरगोसे मिश्र होकर पानी के समान दीखती हैं. प्याससे जिनकी आखें संतप्त हो रही है ऐसे हारणोंको उस सगय सूर्यके किरणों में जलका आभास होने लगता है. वैसा मिथ्यात्व कर्मके उदयसे इस जीवको असत्यपदार्थ भी सत्य भासने लगता है. अतत्वको मिथ्यात्वग्रस्त जीव तवरूप समझता है.