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आश्वास:
मृगागधना
ग्रहणधारणविज्ञानोहापोहतत्त्वामिनिवेशलक्षणागुणयुक्तामपि । मोहि मुग्धा विपर्यास ग्रहावेशेन यथाव दस्तुपरिच्छेदपरिभ्रष्टाम् । अत्रेयं गाथासूत्रे न श्रूयते ।
मूलारा-- एतां विजयाचार्यों नेच्छति । 'मिथ्यात्वका वमन करो' इस वात्रयका विशेप स्पष्टीकरण करते है
अर्थ संसार का मूलकारण मिश्यात्व ही है, अर्थात् मिथ्याश्रद्धान ही संसारका मूल है. इस मिथ्या स्यका हे क्षपक ! तू मन, बचन और कायसे सर्वथा त्याग कर, यह निथ्यात्व गुणों से युक्त ऐसी बुद्धीको भी मुग्ध करता है.
यहाँ शंका-मिथ्यात्वको रात कमों में प्रथम आप कहते हैं वह योग्य नहीं है. जैसे मिथ्यास्य अपने कारणांसे उत्पन्न होता है वैती असंयमादिकों की भी उत्पनि अपने कामोंस होती है अनः मिथ्यात्वका कारण दर्शनमोहनीय कर्म प्रथम उपन होवा है अनंतर चारित्र मोहार्दिकोशी उत्पत्ति होती है ऐमा भी बहना असन् है, क्योंकि हमेशा आस्मामें आटो कमों का गदार है।
उत्तर--सामान्यतः मूत्रकारने मिथ्यात्वाविरतिपमादकपाययोमा बंबालवः' इस मत्रमें मिथ्यात्व को प्रथम स्थान दिया है. अर्थात बंधके कारणों में मिथ्यास्त्रका प्रथम उरख है. संसार बंधपूर्वक है. और संसार का मूल कारण मिथ्याइर्शन है,
यह मिथ्यात्व बुद्धीको विपरीत करता है. यहां कितनेक आचार्थ ऐसा कहते हैं-शुश्रुषा-सुननेकी इच्छा शाखश्रवण करना, श्रवणकर उसको हृदयमें धारण करना, कालांतरमें भी धारण किया हुआ नहीं भूलना इत्यादिक युद्धीके गुण हैं. मिथ्यात्य इनको भी विपरीत बनाता है. अर्थात् बुद्धि और उसके शुश्रूषादिकके कारण मी मिथ्यात्वके सहवाससे विपरीत होते हैं.
अपवस्तुनि तङ्गपावभासिता कथं विधानस्येत्याशफायां विपर्यस्तमपि ज्ञानमुदेसि तनिमित्तसमाचादित्यायट--
परिहर त मिच्छत्तं सम्मत्ताराहणाए दढचित्तो।। होदि णमोकारम्मि य णाणे पदभावणासु धिया ॥ ७२५॥