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मूलाराधना
आधासा
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नेकमप्यक्षरं येन रोच्यते तत्त्वदर्शितम् ।।
स शेर्ष रोचमानोऽपि मिथ्यावृष्टिरसंशयम् ॥ ४२ ॥ विजयोदया--पदमावर प्रति । पदमप्लेन पदशम्यस्य सहकारी पदस्यार्थ उच्यते । अपनरं च प्रति स्वल्पशन्दो पलक्षणं स्वल्पमप्यर्थ शम्मश्रुतं या नोया। ण रोदिन रोचते । सुसणिदिई पूर्वोत्तप्रमाणनिर्दिम् । सेसं इतरश्रुतार्थ भुतांश । रोचतोऽपि मिच्छाविष्टी मिथ्याइधिरिति । मुणेदव्योहातव्यः । महति कुडे स्थित बकपि पयो यथा विषकणिका दूषयति । पचमश्रदानकणिका मलिनयत्यारमनमिति भावः।
बहुतरं श्ररघतोऽस्पस्याश्रद्धाने किं मे मिष्यामित्व मादित्याशा न कार्या, बृहत्कुण्डसंभृतश्रीरस्व विष कणिमाप्रश्नपत्र तत्वावधानकणिक याप्यात्मनो दुष्यत्वारिति शिक्षा प्रयाछत्राह
मूदाराः पदं, पदस्थार्थ साहवर्धात् । अक्खरं स्वल्पमप्यय शब्द श्रुतं चा ।
हम बहुतोंपर श्रद्धा करते हैं और थोडेकी अश्रद्धा करते है तो हम मिथ्यारष्टि कैसे होंगे ऐसी शंका नहीं करना चाहिये. इसका खुलासा आचार्य करते है
हिंदी अर्थ-मूत्र में कहा हुवा एक पदका अर्थ और एक अक्षरका भी अर्थ जो प्रमाण भूत मान कर श्रद्धा नहीं करता है वह बाकीके श्रुनाथको या अतांशको प्रमाण मानता हुवा भी मिथ्यादृष्टिही है ऐसा समझना चाहिंय. बड़े पात्रमें रक्खे हुए बहुत दूधको भी छोटीसी विषकणिका बिगाइती है. इसी नरह अश्रद्धाका छोटासा अंश भी आत्माको मलिन करता है ऐसा समझना चाहिये.
मिथ्याधिरिति मातम्यमित्युकं स एवज्ञायते एवंखरूप इत्याशंकायां मिथ्याष्टिस्वरूपनिरूपणार्थी
मापा
मोहोदयेण जीवो उबइठं पवयणं ण सददि ॥ सहहदि असम्भाचं उबइठं अणुबइ8 वा ॥ ४० ॥