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मूलाराधना
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शुभपरिणामयुक्त सत्पुरुषका आचरण क्रम दिखाते हैं. अर्थ - शुभ परिणामरूप नसनीपर चढ़कर आचरण का क्रम जाननेवाले साधु शाख पदना, दसगको शास्त्रोपदेश देना, आचायोंका पैयाकृत्य करना इत्यादि कारणों के उद्देश्यसे जो परिग्रह संगृहीत किया था अथवा औषध व तदतिरिक्त ज्ञानोपकरण और संयमोपकरण संग्रहित किया था उसका त्यागकर विहार करे तथा जो ईषत्परिग्रह अर्थात् वसतिकाकाभी त्याग करे. इसमें यति निवास करंग इस हेतुसे झाटकर स्वच्छ करना लेपना बगैरह क्रियाओंसे जो दषित है उस वसतिकाको भी वह मुनि त्याग कर विहार करता है अर्थात् तपश्चरण करता है, नित्यनंतरं किं करोलीन्यप्रा.
तो पन्छिमंमि काले वीरपुरिससबियं परमघोरं ।। भत्तं परिणतो उबेटि अभुजनविदा ।। १०६ ॥ दश्चर पश्चिम काल भक्तत्यागं सिपंधिषुः ।। धारीनवंचितं याद चतुरंगे प्रबनते ॥ १७९॥
इति श्रितिसूत्रम् ।। विजयोदया-तोतस्याः श्रितः । पछिमिकाले पश्चिमे काले । धीरपुरुससेवि वीरै पुरुषेराचरितं । परमघोरं अतिदुष्करं । भत्तं परिजाणनो आहारं परित्यक्नुकामः | उवदि उपति । किं अभुज्जदविहारं सम्यग्दर्शनादिएरिणामादि मुख्ये उघंत ॥ सीसी।
एवंविधश्रित्यनतरं कि कगेतीत्यवाह
मूलाग--तो तस्याः । परिजाणतो परित्यक्तुकामः । आहारं त्यजनित्यर्थः । उवेदि आश्रयनि । अन्भुजदRI विहारं रत्नत्रयाभिमुस्यनोयुक्तभाचरणं " नितिः । सूत्रप्तः ५ । अंक्रतः ६ ॥
श्रितीके अनंतर साधु कोनसी क्रिया करते हैं इसका वर्णन करते हैं.
अर्थ-उस श्रितीके अनंतर अंतकालमें वीरपुरुषोंके द्वारा आचरण किया गया, अतिशय दुष्कर ऐसे आहार का त्याग करने की इच्छा करनेवाला मुनि सम्यग्दर्शनादिपरिणामामें उद्युक्त होता है.