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मलाराधना
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तत्त्वषतुकामस्य तनूकरणमुपायः तदनुष्ठितं भवतीति यावत् । विदो स्थापितः । आदा व स्वयं न संयेगे संसारभीगतायां । ननु संसारभीरुता हेतुस्तपसो न तपो हेतुस्तस्याः ततोऽयुक्तमभाणि सूत्रकारण चालेन तपसा संवेगे स्थापितः । लोके नायं संविप्रचित इति स्थाप्यते चाही तपसि वर्तमानस्ततो युक्तमुरूयते ।
तपोऽनुष्ठानगुणान् वाहिरत बेणेत्यादि जसं भत्रेणेत्यवसानं गाथाष्टके नाचष्टे -
मूलारा - सुहसीलदा सुखभावना । सा हि रागं जनयति राग कोकेनाथ बिचित्त इति स्वाप्यते यतस्तत एवमुक्कं । न पुनबाधि तपः संसारभीरुताया हेतुः किं तर्हि सा बाह्यतपसः ।
अर्थ -- बाह्य तपसे संपूर्ण सुखस्वभावका त्याग होता है. अर्थात् बाह्य तप करनेसे आलस्य और सुख प्रियता नट होती है. हमेशा सुखकी भावना करने से मनमें रागभाव उत्पन्न होता है. रागभाव कर्मबंधके कारणभूत दोषोंको उत्पन्न करता है. बंध कर्मस्थितिका कारण है अतः बाथ तपसे सुखशीलताका ही नाश होता है, वाय नप शरीरलेखना होती है, शरीर दुःखका कारण है उसका त्याग करनेकी इच्छा करनेवालेको तप शरीर कृश करने में उपाय है. अर्थात् ब्राह्म तप करनेसे शरीरसल्लेखनाके उपाय की प्राप्ति होती है, बाह्य तपसे आत्मा संसारभीरुता नामक गुणमें स्थिर होता है. शंका- संसारभीरुना तपके लिए कारण है. ऐसा समझना योग्य नहीं है इसलिये माझ तपसे मुनिराज संवेगगुण में स्थिर किया जाता है. यह सूत्रकारका वचन अयोग्य है. उत्तर बाह्य तपश्चरण में तत्परता देखकर इस मुनिका चित्त संसारभयसे युक्त है ऐसा लोक समझते हैं, अतः संसारभीरुता का रण है और तप कार्य हैं. कार्यको देखकर कारणरूप को लोक जानते है. इस नियमका विचार करनेपर सूत्रका - रने संसारभय तपका कारण है ऐसा जो कहा है वह योग्य है ऐसा सिद्ध होता है.
दंताणि इंदियाणि य समाधिजोगा य फासिदा होति ॥ अणिहिदवीरियओ जीवितहा य वोच्छिण्णा ॥ २३८ ॥
सतीन्द्रियाणि दान्तानि स्पृष्टा योगसमाधयः ॥ जीविताशा परिच्छिन्ना बलवीर्यमगोपितम् ॥ २३९ ।।
| अश्वासः
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