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गुलाराधना
श्रावास
एवं चदुरो चटुरो परिहाधवगा य जदणाए । कालम्मि संफिलिटुंमि जाव चत्तारि साधेति ।। ६७२ ।। णिजात्रया य दोणि वि होंति जहण्णेण कालसंसयणा ।। एक्को णिज्जावयओ ण होइ कइया चि जिणसुत्ते ।। ६७३ 11 हेयाः क्रमेण चत्वारश्त्वारस्तावदंजसा॥ यावासमति चत्वारः काले संकेशसंकुले ।। ६९७॥ कालानुसारिणी ग्राचौ द्वौ जघन्यन योगिनौ।
भरतरायतक्षेत्रभवी निर्यापको यती॥ ६९८ ।। विजयोदया - रूपाथोंत्तरगाथाद्वयमिति न व्यास्यापते ॥ कालानुसारेणात्र निर्यापकाणां संख्यादानिक्रम दर्शयत्ति-----
मूलारा-परिहाबदबगा हानि नेतच्याः। जदणाए वेशकालानुसारेण गुणेषु यत्नेन । संकिलिमि संबलेशबहुले ॥
अर्थ -इस प्रकार देशकालानुमार गुणोंको यत्नसे देखकर इस संक्लेश परिणायुक्तकालमें पार चार निर्याएक कम कम करना चाहिये. तर नक कम करना जब वे चार रहेंगे. अर्थात् क्षपकके समाधिमरण माघनके लिय कवल देश, काल, गुणकी अपेक्षामे यदि चार ही निर्यापक हो तो भी समाधिमरणरूपकार्यकी समाप्ति होनी है. अनिय संक्लिष्ट कालमें दो निर्यापक भी अपकके इस कार्यको साध सकते है. परंतु जिनागममें एक निर्यापकका किसी भी कालमें उल्लेख नहीं किया है.
जघन्यतो टी निर्यापकी इति किमर्थमुच्यते । एको जघन्यतो निर्यापकः कस्मानोपन्यस्त इत्याशंकायां पकस्मिनियारक दोषमाचशे
एगो जइ णिज्जवओ अप्पा चत्तो परोपबयणं च ॥ वसणमसमाधिमरणं उड्डाहो दुग्गदी चाचि ।। ६७४ ।।
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