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________________ लागधना आश्वासः विधिनोप्तस्य सस्यस्य विनाः सन्ति सहस्रशः॥ तपसो विहितस्यास्ति प्रत्यूहो न मनागपि ॥ २५१९ ॥ विजयोदया-सु कदाण वि सम्यक् कृतानामपि शस्यादीनां अतीव विष्ठा भवति । तपसः पुनः सम्यक् कृत जगति न कशिद विप्नः फलदान । निर्चितफलदायित्यं तपसो माहात्म्यं कथितं अनया ॥ मूलारा--सस्सादीण धनधान्यादिनाम् ॥ स्वफलं ददतो व्याघातः ।। अर्थ-खती बहुत परिश्रम करने पर भी उसका फल मिलने तक बहुत विघ्न उत्पन्न होते है परंतु निरतिचार तप पालनेपर कोई भी विघ्न उत्पन्न होता नहीं. अर्थात विघ्नके बिना ही तपश्चरणसे स्वर्गादि फल मिलता है. तप में निर्विघ्न फल देना गुण है ऐसा इस गाथासे सिद्ध होता है. जणणभरणादिरोगादुरस्त सुतवो बरोस, होदि॥ रोगादुरस्स अदिविरियमोसधं सुप्पउत्तं वा ।। १४६१ ॥ मृत्युजन्मजरातस्य तपः सुखविधायकम् ।। महारोगातुरस्यव भैषज्यं वीर्यसंयुतम् ॥ १५२० ॥ विजयोदया-जाणमरणादिरोगादुरस्स जन्ममरणाद्यापीडितस्य सुतपो घरीषधं भवति । रोगपीडितस्य सुप्र. युक्तमतिवीर्य मौषधमिव । जननमरणादीनां विनाशकत्वं सत्कारणकर्मविनाशादनाख्यायते ॥ मूलारा--बरोसधं जननमरणादिरोगकारणकर्मापहारकत्वात् ।। अर्थ-जन्म, मरण वगैरह रोगोंसे पीडित इस प्राणीसे उतम तप उत्कृष्ट औषधके समान हितकर है. जैसे रोगसे पीडित मनुष्यका रोग उत्तम औषधीके सेवनसे नष्ट होता है वैसे तपसे जन्ममरणादि रोगोंका नाश होता है, तपसे जन्ममरणके कारणभूत कर्मका नाश होता है अतः कारणका नाश होनेसें कार्यकाभी नाश होगाही. संसारमहाडाहेण डझमाणस्स होइ सीयधरं ॥ सुतबोदाहेण जहा सीयघरं डझमाणस्स ॥ १४६२ ॥
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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