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मूलाराधना
आवासः
'परिग्रहोंका त्याग करना इस अधिकारके अनंतर श्रिति नामक अधिकार है. इसका वर्णन करनेके प्रथम श्रिति शब्दके भावश्रिति और द्रव्य श्रिति ऐसे दो अर्थ करते हैं. श्रिति शब्दके अपकृत अर्थका निराकरण कर इष्टार्थ दिखाने के लिये भावश्रिति और द्रव्यश्रिति ऐसे दो प्रकार आचार्यने दिखाये हैं.
अर्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और समानभाव अर्थात् चारित्र इन गुणोंकी गुणितरूप उत्तरोत्तर उन्नतावस्थाको प्राप्त करलेन। यह भाररूप भिाते है अथात् अपनेम रत्नत्रयका दिन प्रतिदिन उत्तरोत्तर विकाशही करते जाना उसको भावश्रिति कहना चाहिये. और कोई उच्चस्थानमें स्थित पदार्थ लेना चाहे तो निश्रेणी का अवलंबन लेकर एक एक सोपानपंक्ति क्रमसे जो चढना बह द्रव्यथिति है.
अनयोः का या गृहीतेत्यवाह
सल्लेहणं करेंतो सम्बं सुहसीलयं पयहिदूण ॥ भावसिदिमारुहित्ता विहरेज सरीरपिविण्णो ॥ १७२ ॥ द्रव्यथिति परित्यज्य भावश्रितिमधिश्रितः ॥
चारित्रे चेष्टता शुद्ध त्यक्तुकामः कलेवरम् ॥ १७॥ घिजयोदया-सल्लेणं सल्लेखना करतो कुर्वन् । सम्वं सुहसीलय सवा सुखभावना आसनशयनभोजनादिविषयां । पयहिदूण प्रकर्षण त्यक्त्या योगत्रयेणेति यावत् । भाषसिदिमारहित्ता श्रद्धानाविपरिणामसेयां प्रतिपय विहरेन्ज प्रवतेत । सरीरणिबिण्णो शरीरनिःस्पृहः । किमनेच शरीरेण, सुलभनासारण, अशुचिना, कतन, भारण रोगाणामाकरेण, जरामरणप्रतिहतेन तुःखविधायिनेति ॥
प्रशमसुखरासिकेन निर्वेदमुल्बणयितुं भावनितिमाश्रित्य प्रवर्तितव्यमित्यनुशास्ति ।।
मूलारी-मुहसीलदं भोजनासनयनादिविषयों सुखभावना । पजहिवण प्रकर्षण योगत्रयेण त्यक्त्वा भावसि. दिमारुहिता प्रदानादिपरिणामसेषां प्रतिपय । विहरेज प्रवर्तत । सरीरणिविष्णो किमनेन शरीरेण सुलभेन, निःसारण, अशुचिना, कृतघ्नेन, भारेण, रोगाण्यामाकरण, जरामरणप्रनिहतेन, दुःखविधाविनेति देहस्पनिष्क्रान्तः।
दो श्रितिमिस प्रकृत विषयमें कौनसी श्रिति ग्रहण की है इस प्रश्नका उत्तर आचार्य कहते हैं।
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