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________________ मूलाराधना आश्वासः अवज्ञाकारमं वैरकलहत्रासवर्द्धकम् ।। अअव्यं कदकं जेयमप्रियं वचनं बधैः ।। ८५१ ॥ रागद्वेषमदमोधलोभमोहादिसंभवं ।। चितर्थ वचनं हेयं संयतेन विशेषतः || १२॥ विजयोदया-हासमय-हास्थन, मयन, लोभेन. धिन. प्रोपंगत्येवमादिना कारणेन । पवं असनवयणं एतदमोचन स्वया पत्तण प्रयन्नेन । परिहग्विध्वं परिहर्तव्यं । विस विशेषण || अर्थ-मर्मच्छेद करनेवाले भाषणको परुष कहते हैं जैसे तूं अनेक दोषोंसे दुष्ट हैं. मनको उद्विग्न करने वाली भाषाको कटु भाषा कहते है जैसे तू निंध जातीमें पैदा हुआ है, ने धर्म रहित पाणी है. इत्यादि. वैर उत्पन्न करनेवाला भाषण जैसे गधा है, तरको कुछ भी ज्ञान नहीं हं. तर समान मूर्ख इस संसारमें दसरा कोई नहीं है. इत्यादि. जिससे कलह हो जाता है वह कलहकारि वचन कहते हैं. मनको त्रास पोहोचंगा क्लेश होगा वह वचन उपासनकर है. दसरोंकी अवज्ञा करनेवाले शब्द बोलना वह हीलन वचन है. जैसे तुमको धिक्कार हो. इस तरह अप्रिय बचनका संक्षेपसे वर्णन किया. हास्य, भीति, लोभ, क्रोध, द्वेष इत्यादि कारणांस जो असत्य भाषण किया जाता है हे क्षपक ! उसका तूं प्रयत्नसे विशेष त्याग कर. एवमसद्रियावं परिहार्यमुपविष्य सस्पषचनलक्षणभुक्तासचनलक्षणतया वर्शयति तविबरीदं सब्बं कज्जे काले मिदं सक्सिए य ॥ भत्तादिकहारहियं भणाहि त चेव सुयणाहि ।। ८३४ ॥ विपरीत ततः सत्यं काले कार्य मितं हितम्। निर्भक्तादिकथं हि तदेव वचन शृणु ॥ ८४३ ॥ चिजयोदया-तस्बियरी असाचन विपरीतं । सन्म सन्य भणाहि भण । कजे कार्य शानाचारित्राति शिक्षालक्षयो । असंगमपरिहारे पास्य वा सन्मार्गस्थापनारूपे काले । आवश्यकादीन कालादन्यः काल इत्यकालवादमोच्यते । अथवा कालशब्देन प्रस्ताय उच्यते । मिदं परिमितं वचनं । सचिसण य भवतो ज्ञानस्य विषये प्रवृत्तं वचनं । भणाहि भण । मनादिकथार हिदं भणाहि त नेध य सुपाहि भक्तचोरस्त्रीराजमथाविरहितं । तं चेव य तथाभूतमेव १६६ 7 .
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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