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मूलाराधना
शांत कर देते हैं. तपसे परिमिताहारतानामक गुण प्राप्त होता है. जवणाहार शब्दका परिमित आहार ऐसा अर्थ है ऐसा कोई आचार्य कहते हैं, परिमित आहार करनेसे नीरोगतादिक छह गुणोंकी प्राप्ति होती है. जितने आहारसे शरीर रह सके उतने आहारको जवणाहार कहना चाहिये ऐसा कोई आचार्य जवणाहार शब्दका अर्थ करते हैं.
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पयमित्यादिनोपसंहरति
एवं उग्गमउप्पादणेसणासुद्धभत्तपाणेण ||
मिदलहुयविरमलक्खेण य तक्मेदं कुपानि णिचं ॥ २५५ ॥ विजयोदया-पत्र मे तबो णिशं कुणदित्ति पदघटना । एवं व्यायर्णितरूपेण । पर्व पतस् वायं मपः कुदि करोति णिचं नित्यं । उम्गमडप्पादणेसपणासुभत्तपायोण उगमोत्पादनपणादोषरहितेन, अक्तेन पानेन च । कीटग्भूतेन ? मिदलगविरमन्मनेण परिमिनेन लघुना, यिम्सन, मरण पावभृनं जमामा शुक्वा नपा कुर्थाप्राहमिति भावः।
इत्थं बाह्यतपसो गुणानाळ्यायोपसंहारमाह -
मूलारा-एवं बाह्य | कुम दि शुद्धगादिपच गुणमेवाहा नुकत्या मुगाः तप: करोति नेतरमिति भावः ॥ ___ अर्थ-मुनिराज उद्गम उत्पादन और एषणा इन दोषोंका त्याग कर मित, लघु, रसरहित और रूक्ष ऐसा आहार और पानक पदार्थ लेकर यह बाह्य तप नित्य करते है, शुद्ध आहार लेकर तप करना चाहिये, अशुद्ध आहार नहीं लेना ऐसा इस माथाका अभिप्राय है.
उल्लीणोल्लीणेहिं य अहवा एकंतबमाणेहिं ।। सालिहइ मुणी देहं आहारविधि पयणुगितो ॥ २४६ ॥ आहारमल्पयन्नेवं वृद्धो धृद्धेन संयतः।। तपसा संलिखत्वंगं वृद्धेनैकांतसोऽधवा ।। २४६ ॥