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मूलाराधना
आश्वासः
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काय शब्दसे गृहीत होता है. अर्थात औदारिकारीस्को यहा'काय' कहते हैं. क्योंकि इतर वैऋियिकादि शरीरोंमें उत्सर्ग-त्यागका संभव सिद्ध नहीं होता है. औदारिक शरीरसे ही चारित्र पाला जाता है. इससे ही मनुष्य मोक्षको हस्तगत करते है अतएव इसमें ही उत्सगकी संभावना है, अन्यत्र नहीं है. इस उत्सर्गका आगे खुलासा लिखेंगे.
___ शंका-जब आयुकर्म पूर्ण निकल जाता है तभी आत्मा शरीरको छोडती है. अन्यसमयमं नहीं. इसलिये अन्यमगर कापात्पर्ग नामकी आवश्यक क्रिया कंगी होगी।
उत्तर-आत्माके और शरीरके प्रदेश परस्परोंमें मिलजानसे अबतक आयुकर्म है तरकत आत्मासे शरीरका विछोह नहीं होगा तोभी शरीर सप्तधातुओंसे बना हुआ है, अत्यंत अपवित्र शुक्र और शोणितासे इसकी उत्पत्ति हुई है अतः यह अशुचि है. तथा यह अनित्य, विनाशशील, असार, दुःखका हेतु है. इस शरीरपर ममता करनेसे जीवको अनंत कालतक संसारमें भ्रमय करना पडेगा. इत्यादिक शरीरदोषोंका विचार कर यह शरीर मेरा नहीं है और मैं इसका स्वामी नहीं हूं ऐसा संकल्प मनमें पैदा हो जानेसे शरीरपर प्रेमका अभाव होता है. उससे शारीरका स्याग सिद्ध होता है, जैसे प्राणसे भी प्रियपत्नीने यदि कुछ अपराध किया हो तो वह पतिके साथ एक ही घरमें रहती है तो भी पतीका प्रेम उसपरसे हट जानेसे वह त्यागी गई है ऐसा कह सकते है. क्यों कि यह मेरी है यह ममत्वभावना पुरुपके हृदयसे नष्ट हुई है. से यहां शरीरपरसे ममत्व भाष हटनेसे कायोत्सर्ग-शरीरका त्याग सिद्ध होता है.
शरीरका नाश होनेका कारण उपस्थित होनेपर भी नाशको हटानेकी अभिलाषा कायोत्सर्ग नामक आवश्य क्रिया करते समय मुनिवर्यमें नहीं होती है. जो जिसके नाशके कारण हटाने में उत्सुक नहीं हैं उसने बह । त्यागा है ऐसा समझना चाहिये जैसे वस्त्रादिकोंका त्याग, शरीरके अपायकारणको हटाने में यति निरुत्सुक रहते हैं इस लिये उनका कार्यत्यार्ग योग्य ही है. कायोत्सर्ग करनेवाले मुनि शरीपर निस्पृह होकर स्तंभक समान खडे हो जाते हैं, अपने दो बाहु जानु तक रखते हैं. और प्रशस्तध्यानमें निमग्न होते हैं. अपने ऊपरके शरीरको ये उन्नत और नम्र भी नहीं रखते हैं अर्थात वे छातीको आगे जादा उठाते नहीं है अथवा नीचे उनका शरीर जादा इकता भी नहीं है. कर्मका नाश करने की इच्छा रखते हुए ये निर्जन्तुक एकान्त स्थानमें उपसर्ग सहन करते हैं.
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