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मुम्हारापना
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मिथ्यात्वाराधनाप्रतिपादनार्था गाथा
जदि धरिसणमेरितयं करेदि सिस्सस्स चेव आयरिओ ॥ धिद्धि अपुठ्ठधम्मो समणोति भणेज मिच्छजणो ॥ ४९४ ॥
आचार्यों यत्र शिष्यस्य विद्धाति विघा ॥ धिकतान्निधर्मकान्साधूनिति वक्ति जनोऽखिलः ।। ५०९।। विश्वासघातका एव दुष्टाः सन्ति दिगंपराः।।
ईदृशीं कुर्वते निंदां मिथ्यात्वाकालता जनाः ।। ५१ ॥ विजयोदया-सर रिसणमरिसयं यदि दूषण एवंभूतं । करेदिकरोति । सिस्सस्स चव शिष्यस्यैच का आचार्यः । धिद्धि अपुष्ठधम्मो समगोत्ति भणिज्ज घिग्धिम् अपुष्टधर्मान् श्रमणान् । इति भणज्ज मिन्छजणे घदेन्मिथ्यारष्टिजनः ॥
मिच्यात्वाराधनाद्वारायात जनापवादमाह
मुलारा--धरिसणं धर्षणं विडंबनां । घिद्धी धिम् धिम् । अपुठ्ठधम्मे अपुष्टधर्मणः निर्मकान् श्रमणान दिगंबरान् । तथा चोक्तम् -
आचार्यो यत्र शिष्यस्य विदधाति विडंबनाम् ।
धिकतानिधर्मकान्साधूनिति बक्ति जनोअखिलः ।। दोष प्रगट करनेसे मिथ्यात्वकी आराधना होगी ऐसा वर्णन
अर्थ--यदि आचार्य दोष प्रगट कर शिष्यको दूषित करेंगे तो मिथ्यात्वी लोक ये जैनमुनि अपने घमको पुष्ट नहीं बना सकते हैं, अपने हाथसे ये अपने धर्मका नाश करते हैं ऐसे वचन बोलकर धिक्कार करेंगे. इस लिये दोष प्रगट करना यह कार्य धर्मविध्वंसक है ऐसा समझना चाहिये. प्रस्तुतापरिनाधितोपसंहारगाथा प्रसिद्धार्था
इच्चेवमादिदोसा ण होति गुरुणो रहस्सधारिस्स ॥ पुठेच अपुढे वा अपरिस्साइस्स धीररस ॥ ४९५ ॥