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मूलारापना
आश्वासः
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भी समानता होगी. और यदि कारणोंमें विशेषता होगी तो कार्यमें-बंध विशेषता होगी ही. तीव्र, मंद, और मध्यम रूप परिणाम उत्पन्न होनेपर तीव, मंद मध्यम प्रकारका बंध होगा ऐसा अभिप्राय समझना चाहिये। अधिकरण नाति
वीस पल तिण्णि मोदय पण्णरह पला तहेव चत्तारि | बारह पलिया पंच दु तसि पि समो हवे बंधो ॥ ८०९ ॥ जीवगदमजीवगदं समासदो होदि दुबिहमधिकरणं ॥ अत्तरसयभेदं पढमं विदियं चदुभेदं ॥ ८१० ॥ जीवाजीवविकल्पेन तत्राधिकरणं द्विधा ।।
ज्ञातमष्टोत्तरं पूर्व द्वित्तीयं च चतुर्विधम् ।। ८३६ ॥ विजयोदया-जीवगदमजीयगर्द इति जीवगत इति जीवपर्याय उच्यते | नहि जीवद्रव्यत्षमात्र पेव हिसायां उपकरणं मवति । किंतु जीवस्य पर्यायः आस्रषस्य । हिंसादेर्जीवपरिणामो युक्तोऽभ्यंतरकरणं । अजीवगतः पर्याय: तुध्यार्थे हि अजीवद्रव्यत्वाख्यः सदा सविहितकार्यः स्यात्काबाचित्कतां कथमिव संपादयति 1 पर्यायस्तु स्वकारण सानिध्यात्कदाचिदेवेति । यदा स्वयं सन्निहितसहकारिकारणास्तदैव स्वकार्य कुर्षन्ति ।माम्यदेति युक्ता कादाचिकता कार्यस्येति भावः । समासदो दुविधमधिकरणं सेभपतो विधिधमधिकरणं । अत्तरसयभेदं अष्टोसरशतभेदं । पदम जीवगतमधिकरणं । विदियं द्वितीयं अजीघयतमधिकरण सम्भवं चतुर्षिकरूपं ॥
अधिकरण भेदोंका निरूपण करते हैं
अर्थ--प्रादोषिक वगैरह हिंसाके पांच भेद ऊपर कहे हैं. प्रत्येकके क्रोध, मान, माया और लोभके आश्र | यसे पांच पांच भेद होते हैं. अर्थात् क्रोधादिकके आश्रयसे प्रारोषादिकके वीस भेद होते हैं. इन्द्रियोंकी अपेक्षाम
इन प्रादोषिकादि पांच क्रियाओंके पंचवीस भेद होते हैं. और मन वचन, और शरीर की अपेक्षासे इन क्रियाओंके | पंधरा भेद होते हैं. इन सबोंका कर्मबंध समान होता है.
अर्थ-अधिकरणके जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण ऐसे संक्षेपसे दो भेद हैं. जीवाधिकरण के एकसो
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