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________________ মূস্টান आश्वास रक्तस्य कृमिरागेण शुद्धिाक्षारसन वा ॥ घनस्य जायते जातु नैषा शुद्धिः पुनर्भुवम् ॥ ५९२ ।। इति अनुकम्पावोषः॥ विजयोदया-किमिरागकंबलस्स व कृमिभुक्ताहारवर्णतंतुभिरून कंबलः कृमिरागकंबलः । तस्स सोधी विशुद्धिरित्र पीतनीलरक्तादीनां अभ्यतमवर्णस्य शुक्लतेथ । जदुरागच्छसोधीव जनुवर्णयपशुशिरिष वा यथासी कनशेन मर्तमानापि न भवत्येमियमपीति सधर्मता। अहवा अथवा । अपि सा ऋमिरागकत्रशुद्विजन्तुगगयल शक्ति र्या हवेज भवेत् । इण इय सल्लुद्धरण शुद्धिर्न भवत्येव ।। गुरूपचारपूर्वकालोचनया रत्नाबशुद्धे१करता निदर्शनमा माया गुलारा- किमिरायचलाम कृमिमुक्ताहारवर्णन तुधिरूत : कंबलः कृमिागकपलस्तस्यति संस्कृतटीकायां व्याख्यानं | टिप्पनके तु कृमिरात्यक्तरक्ताहाररंजितर्ततुनिष्पादितकंबलस्थेति (१) प्राकृतटीकायो पुनरिदमुक्त-उत्तरापथे चर्मरंगम्लेच्छविषये म्लेच्छा जलौकाभिभानुपरुधिरं गृहीत्वा भडकेषु स्थापयन्ति । नतस्तेन रुधिरेण कतिपयदिवमोत्पन्न विपनकमिकेगोर्णासूत्रं रंजयित्वा कंपलं वयंति । सोऽयं कृमिरागकंबल इत्युच्यते । स चानीव रुधिरवर्गा भवति, नस्य हि वन्हिना ४ायस्यापि स कृमिरागो नापगच्छनीति | सोण शुक्लतापादनं । अदुगगवच्छ मोची मिरेशलाभारनट मायखशुद्धिः । अबि अपिः संभावने । विहद कथंचित् । आवासेन । इमा मनधरण सोधी इयं गुरू पचार पार्वका लागनया रत्नत्रयशुद्धिः। अर्थ · कृमिओंने भक्षण किये आहारसे उत्पन्न हुए जो वर्णयुक्त तंतु उससे बना हुआ कंबल समृद्ध अर्थात् अपना नील पीतादिक रंग छोडकर शुक्ल - सफेत होता नहीं वैसा यह आलोचना भी निर्मल नहीं मानी जाती है. अथवा लाखके रंगसे रंगा हुआ बस पहुत धोनेपर भी अपना लालरंग छोडकर सफेत नहीं होता है वैसी यह आलोचना भी मायायुक्त होनेसे शुद्ध नहीं मानी जाती है. अथवा कृमिरागयुक्त कंबल धोनेपर कदाचित निर्मल होगा. लाखके रंगसे रंगा दुआ कंबल धोनेपर निर्मल अनेगा परंतु यह आलोचना कभी भी शुद्ध न होगी. इस प्रकार अनुकंपित्त दोषका वर्णन हुआ, ७९
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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