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मूलाराधना
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यज्जन्मलक्षकोटीभिरसंख्यामी रजोऽजितम् ।।
तत्सम्यग्दर्शनोत्पादे क्षणेनैकेन हन्यते ।। ७४४ ।। विजयोदया--जं यत् । यद्ध रयं बद रजः कर्म । यथा रजइच्छादयति परस्य गुण शरीरादेः कच्छूदद्रप्रभृतिक दोपमावइति । तद्वद्रोधादिगुणमवच्छादयति । संपादयति च विचित्रा विपदः तेन रजश्व रज इत्युच्यते । भवसदसहस्स कोडीहिं भवशतसहस्रकोटिभिः । तद्रजः खत्ति क्षपयंति। केन? सम्मत्तुप्पत्तीप. श्रद्धानोत्पत्त्या। एगसमपेण पकेनैव समयेन । तथा चोक्त- सम्पटिश्रावकविरतानंतवियोजकदर्शनमोक्षपदोगडाकोपशासमोसभाकक्षीणमोहजिनाः कमशोऽसंख्येयगुणनिर्जरा इति ।
सरकालोवीर्णस्य सन्यासिगस्तदुपासिनो च श्रद्धानस्य माहात्म्यमभिष्टौति--
मूलारा-रयं पापं । ख वें ति गालयति । क्षपकतत्परिचारका आविशेषेणैव वा भन्यजीवा सम्यक्त्वभूमिमनु प्रामाः । एयसमयेण अल्पकालेन ॥
अर्थ-रज-धूलि शरीरको आच्छादित कर विरूप बनाती है और खरूज, ददू वगैरह रोगको उत्पन्न करती है. वैसा यह कर्मरज आत्माके ज्ञानदर्शनादि गुणोंको आच्छादित कर उसको दुर्गतिमें लोटता है अतएव इस बद्ध हुए कर्मरजकी आचार्य और परिचारक मुनि क्षपकश्शुपा कर निर्जीर्ण करते हैं, जब सम्यग्दर्शन जीवको प्राप्त होता है तब कोट्यवधि भवमें संचित हुए कर्मको भी एक समयमें निर्जीर्ण करते हैं, क्षपककी शुश्रूषा करनेसे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है. जिससे एक समय में असंख्येय गुणी निर्जरा होती है. तथा जो भव्य क्षपपके दर्शनार्थ आते हैं उनको भी सम्यग्दर्शनका लाभ होनेसे उनके कर्मकी निर्जरा होती है. तत्वार्थाधिगम महाशाखौ ' सम्यग्दृष्टि श्रावक इत्यादि ' मूत्रमें सम्यग्दृष्ट्यादि श्रावकाको प्रतिसमय असंरूपेय गुणित कर्म निर्जरा होती हैं ऐसा लिखा है,
एयसमएण विधुणादि उबउजुत्तो बहुभवज्जियं कम्मे ॥ अण्णयरम्म य जोग्गे पच्चक्खाणे विसेसेण ॥ ७१८ ॥ धुनीते क्षणतः कर्म संचितं बहुभिर्भवैः ॥ व्यावृत्तोऽन्यतमे योगे प्रत्याख्याने विशेषतः ॥ ७४५॥