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________________ मूलाराधना । आधामः अवसम्म कहते हैं और उसके मरणको अवसनमरण कहते हैं. अपसन्न शब्दसे पार्श्वस्थ, स्वच्छद, कुशील और संसक्त ऐसे भ्रष्ट मुनिओका भी ग्रहण होता है. इनका वर्णन पार्श्वस्थ, स्वच्छंद, कुशील, संसक्त और अवसन ये पांच प्रकारके मुनि रत्नत्रयमार्गमें विहार करनेवाले मुनिओंका त्याग करते हैं. अर्थात् स्वच्छंदसे चलते हैं. ये मुनि ऋद्धीमें आसक्त होते हैं, रमोंमें आसक्ति रखते हैं. दुःखमे डरते हैं, हमेशा सुखको चाहते हैं, कषायोमें परिणत होकर आहारादि संज्ञाके आधीन रहते हैं. जिससे पाप उत्पन्न होना है ऐसे कुशास्रोंका अभ्यास करते हैं. ३ गुप्ति ५ समिनि और ५ महावत ऐसे तरह प्रकारकी क्रियाओंमें आलमी रहते हैं. इनके परिणामोमें हमेशा संक्लेश रहा करता है, आहारके पदार्थ और पिछी, कमंडल्वादिक उपकरणोंमें इनका चित्त आसक्त होता है. निमित्त शास्त्र, मंत्र शास्त्र, औषध इनका कथन कर ये उपजीविका करते है. गृहस्थोंका वैयावृत्य करते हैं. उत्तरगुणोंसे रहित होते हैं. गुप्ति और समितिमें इन की तत्परता नहीं रहती है. इनका मन संसार दुःखोंसे भययुक्त होता नहीं हैं. उत्तम क्षमादिक दशधोंमें ये प्रेम नहीं करते हैं. इनके चारित्रमें दोष लगने हैं. ऐसे मुनिको अबसन्न कहते हैं. ये मुनि मरकर हजारों भवमें भ्रमण करते हुवे दुःखोंको वारंवार भोगते हैं. यदि पार्श्वस्थरूपसे चिरकाल बिहार कर अंतमें उन्होंने अपनी शुद्धि की होगी तो वे प्रशनमरणको प्राप्त होते हैं, जो सम्यग्दृष्टि होकर संयमासयम अर्थात अणुव्रत धारण करता है वह श्रावक बाल पंडित कहा जाता है. उसके भरण का नाम बाल पंडित मरण ऐसा है. यह श्रावक बाल और पंडितत्व ऐसे दोनों भावोसे युक्त होनेसे इसको चाल पंडित कहते है. स्थूल हिंसादिक पंच पापोंका त्याग इसने किया है, तथा सम्बग्दर्शन का धारक भी है. अतः यह चारित्र पंडित और दर्शन पंडित है. परंतु सूक्ष्म असंयमसे निवृत्त नहीं है, सूक्ष्म हिंसादि पापोंका त्यागी न होनेसे इसमें चालत्व भी है अतः इसको थालपंडित कहना अन्वर्थ है, यह बाल पंडित भरण गर्भजपर्याप्त ऐसे पिच और मनुष्योंमें होता है. देव और नारकी जीवों में नहीं होता. क्योंकि वे केवल दर्शन पंडित ही है. दर्शनपंडितमरण उपर्युक्त तिच, मनुष्य, देव और नारकी जीव इनमें होता है. सल्यमरणके दो भेद हैं क्योंकि शल्यके द्रव्यशल्य और भावशल्य ऐसे दो भेद माने हैं. मिथ्यादर्शन माया, निदान ऐसे तीन शल्योंकी जिनसे उत्पत्ति होती हैं ऐसे कारणभूत कर्मको द्रव्यशल्य कहते हैं, इनके
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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