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आश्वासः
मूलाराधना
हिए. जिन्होंने प्रायश्चित्तशास्त्रको जान लिया है ऐसे आचार्य प्रायश्चित्त देते समय सावधानी रखकर प्रायश्चित देवे जिससे अज्ञताका दोष नहीं लगेगा.
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जह ण करेदि तिगिच्छं वाधिस्स तिगिच्छओ अणिम्मादो ॥ ववहारमयाणतो ण सोधिकामो विसुज्छेह ॥ ४५३ ॥ व्यवहारावुधः शक्तो न विशोधयितुं परम् ।।
किं चिकित्सामजानामा रोगमत चिकित्सति ।। ४६५ ॥ विजयादया-यदि नाम ममम मुनधनवशिष्यजनपरितृतवमानेणोपजातादंकारा मुखलोकेनारताः संति सूरयम्न भवद्भिः अदा न टोकनीगः इति शिक्षति-जा कंद्रि तिर्गिच्छिगो वैद्यो । अणिम्मादो अनिपुणः । नहा नयााधवहारमजाना प्राधिनमजान-परित । सोधिकामो रस्नत्रयशुमचामिलापः । ण सोधिदि वु न शोधयत्यय ।।
य नाम मुखरा मूर्या बहुशिष्यपरिवृतत्वमात्रेण प्ररूडाईकारा मूर्खलोकेनाहताः सति सूरयस्ते भवद्भिः शुद्धयर्थ गोपाश्रयणीया ति शिक्षयत्ति
मूलारा - तिगिंछ प्रतिकारं । विगिंछओ वैद्यः । आणिरसदो अनिष्णातः | अनिपुणः ।खु सोधेदि शोधयत्यय ।
अर्थ-जो आचार्य मुखर हैं अर्थात वाचाल हैं. मूर्ख य नवीन शिष्योंसे वेष्टित होनेसे जिनको अभिमान उत्पन्न हुआ है. मूर्ख लोगोंसे जो पूजनीय हो रहे हैं ऐसे आचार्यका आश्रय हे क्षपक ! तुम अपराधशुद्धीके लिए कदाचित् भी न करो ऐसी शिक्षा इस गाथामें दृष्टांतपूर्वक कही है वह इस प्रकार--जैसे अन्न वैद्य रोगका स्वरूप जानना नहीं है अतः वह अनिपुण होनेसे रोमकी चिकित्सा नहीं कर सकता है. चैसे जो जो आचार्य प्रायश्चित ग्रंथके जानकार नहीं है वे यद्यपि रत्नत्रयकी निर्मल करनेकी इच्छा रखते हुए भी उसको निर्मल नहीं कर सकते हैं.
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तहा णिन्विसिदव्वं क्वहारबदो हु पादमूलम्मि ॥ तत्थ हु विजा चरण समाधिसोधी य णियमेण ॥ ४५८ ॥