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मूलाराधना
भाधासः
महार्दिका सलज्जा मिथ्यात्वप्रचुरशातिश्च न तदा पुंवदनमपि मंचति ।। नो त्याग्गिनेव म्रियते । तथा चोक- .
यदौत्सर्गिफमन्यद्वा लिंगं दृष्ट खियाः अवे ।।
पुंवत्तदिप्यते मृत्युकाले स्वल्पीकृतोपधेः ।। यहांतक भक्तप्रत्याख्यानकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषोंका दो प्रकारका लिंगभेद-उत्सर्ग लिंग और अपवादलिंग आचार्यने कहा है. अब भक्तप्रत्याख्यानेच्छु त्रियोंका लिंग आगेकी गाथासे कहते हैं
हिंदी अर्थ-परमागममें खियोंका अर्थात् आर्यिकाओंका और श्राविकाओंका जो उत्सर्गलिंग और अपवादलिंग कहा है वही लिंग भक्तप्रत्याख्यानकै समय समझना चाहिये, अर्थात् आर्यिकाओंका भक्तप्रत्याख्यानके समय उत्सर्गलिंग विविक्तस्थानमें होना चाहिये अर्थात् वह भी मुनिवत् उस समय नग्नरूपता धारण करे ऐसी आगमात्रा है, परन्तु श्राविकाका उत्सर्ग लिंग भी है और अपवादलिंग भी है, यदि वह श्राविका संपचिवाली अथवा लज्जावती होगी अथवा उसके गांधवगण मिथ्यात्वी हो तो वह अपवादलिंग धारण करे अर्थात् पूर्ववेपमेंही रहकर भक्तप्रत्याख्यानसे मरण करे तथा जिस श्राविकाने अपना परिग्रह कम किया है वह एकान्त वसतिकास्थानमें उत्सलिंग-नग्नता धारण कर सकती है,
नन्वहस्य रत्नत्रयभावनाप्रकर्षेण मृतिरुपयुज्यते किममुना लिंगविकल्पोपादानेनन्यस्योत्तरमाह
जत्तासाधणचिह्नकरणं खु जगपच्चयादठिदिकरणं ।। गिहभावविवेगो विय लिंगग्गहणे गुणा होति ।। ८२ ॥ यात्रासाधनगाईस्थ्यविवेकात्मस्थितिक्रिया ।।
परमो लोकविश्वासो गुणा लिंगमुपेयुषः ।। ८३ ॥ विजयोदया---जसासाधणचिण्डकरणं यात्रा शरीरस्थितिहेतुभूता भुजिकिया । तस्याः साधनं यलिगजात चिन्द्रजानं नम्ग करणं । न दिगृहस्थ वेषेण स्थितो गुणीति सर्वजनताधिगम्यो भवति । अज्ञातगुणविशेषाश्च दानं न प्रयपछति । ततो न स्पाच्छरीरस्थितिः । असत्या तस्यां रत्नत्रयभावनाप्रकर्षः कमोगोषचीयमानो न स्यात् 1 बिना तं न मुरित्यमिलापित कार्य सिविरच न स्यात् । गुणवत्तायाः सूचनं लिंगं भवति । ततो दानाविपरंपरया कार्यसिद्धिर्भवतीति भावः । अथवा यात्राशब्दो गतिवचनः यथा देवदत्तस्य यात्राकालोऽयम् । गतिसामान्यवचनादप्ययं शिवगतावेव वर्तते,