SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1619
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलाराधना आश्वास तस्य भयमुपदर्शयति ॥ आगासम्मि वि पक्खी जले वि मच्छा थले वि थलचारी॥ हिंसंति एक्कमकं सब्वत्थ भयं खु संसारे ॥ १७८२ ।। आकाशे पक्षिणोऽन्योन्य स्थले स्थलविहारिणः ।। जल मीनाश्च हिंसन्ति सर्वत्रापि भयं भवे ।। १८५२॥ विजयोट्यान्यायासम्मि वि पक्षी आकाश रंनरंनं परकीयपक्षिणो त्रियाधते | जलेवि मच्छा जलेपि मत्स्याः। लेटिमचारी परम सति वाकमेकं अन्योन्य । सव्वस्थ नयं ग्यु संसारे सर्वत्र भयं संसार। एवं पंचप्रकार संसार निरूप्य तद्यापायादीपंचदशगाथामिश्रिनयनिमूलारा- एक मेक अन्योन्याम् ॥ अब संसारसे भय दिखाते है। अर्थ-आकाशमें विहार करनेवाले छोटे २ पक्षिाको दुसर ऋर पक्षी पीडा देते हैं. अर्थान् उनको मारंत हैं- खा जाते हैं. पानी में बड़े मत्स्य छोट मत्स्यको निगल जाते है, और भूतलपरभी हिंस्रप्राणी परस्परको मारते हैं अतः इस जगतमें सर्वत्र भयही भय है. ससउ वाहपरद्धो बिलिचि णाऊण अजगरस्स मुहं ॥ सरणत्ति मण्णमाणो मच्चुस्स मुहं जह अदीदि ॥ १७८३ ॥ शयालोर्मुखमभ्यस्य व्यापारब्धो यथा शशः ।। मन्वानो विवर दीनः प्रयाति यममंदिरम् ॥ १८५३ ॥ चिसयोदया-ससगो वाहपरद्धो शाशो व्याधेनोपटुतः, चिलिक्षिणाऊण अजगरस्य मुई बिलमिति वास्या अजगरस्य मुखं । सरणत्ति मपणमाणो शरणमिति मन्यमानः । मच्चुस्स मुई जद्द अदीदि मृत्योर्मुख यथा प्रविशति । मुलारा-पाहपरद्धो व्याधनोपद्रुतः । विलिसि बिलमिति । सरणति त्राणमिति । अर्थ-पारधीसे पारित हुआ खरगोश अजगरके मुखको बिल समझकर उसमें प्रवेश करता है. इस बिल में मैं रह सकूँगा इस अभिपायसे उसमें घुसता है. परंतु वहां वह मृत्युके वश होता है वैसे ।
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy