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________________ मूलाराधना आश्वास १२४३ RATARARASHRAM जह कोडिल्लो अगि तप्पंतो व उवममं लभदि । तह भोगे मुंजतो खणं पि णो उवसमं लभदि ॥ १२५१ ॥ सेवमानो यथा वहिं न कुष्ठी लभते शमम् ।। भुजानो न तथा भोगं संतोषं प्रतिपचते ॥१२९१ ॥ विजयोदया-जह कोशिलो यथा कुष्ठेनोपतः । अग्गि ततो अमिना दस्यमानमूर्तिरपि । च उयसम लभदि मैध व्याधरुपशमं लभते । नग्निरूपशामकः कष्ठस्थापित चईकः। यद्यस्य वृद्धिनिमित्तं न तत्सदुपशमयति । यथा कुष्टं नोपशमयसि वलिः । वर्धयति नाभिमार्ग अवलादिसंगमः | साह तथा भोगे झुंजतो भोगानुभयनोचतः। स्वर्ण पि जो प्रषसम लदि । क्षणभाषमपि नोपशम लभते मोगामिलावशेगस्थ । भोगैस्तृष्णाभिवर्धनेन परितापानुबंध बोधयति-- मूलारा-अरिंग तपतो अग्नि सेवमानः । उबसम शांति कुषस्य । चन्हितापस्य तर्धकत्वात् । उवसमें भोगाभिलापरागशांति । सनिमित्तवंदाज्यकर्मणः प्रियांगनाधुपयोगेन प्रतिक्षणमाधीवमानोदीरणश्रवणत्वात् ।। ऐसे सुखको ही सख माननवाल आचार्य दृष्टान्त प्रतिपादन करते है अर्थ-जंभे कुष्ठी मनुष्य अग्निम शरीर तपनेपर भी उपशमको प्राप्त नहीं होता है. अर्थात् अग्नि सेवन से कुछ उपशांत नहीं होता है. उलटा बढ़ने लगता है, जो जिसके बढ़नेम निमित्त होता है वह उसका उपशमन नहीं कर सकता है. जैस अग्नि कुष्ठको शांत नहीं कर सकता है. बस स्त्री वगैरह पदार्थों का सहवास भी अभिलाषाका उमशम नहीं करता है किंतु वह उसको बहाता ही है. भोगोंका उपभोग लेनेमें उद्युक्त हुआ पुरुषका अभिलाषारूपी रोग क्षणपर्यत भी शान्त नहीं होता है. प्रतिदिन वह बढ़ता ही है. कच्छु कंडुयमाणो सुहाभिमाणं करेदि जह दुक्खे ॥ दुक्खे सुहाभिमाणं मेहुण आदीहिं कुणदि तहा ।। १२५२ ॥ मैथुनं सेवमानोऽही सौख्यं दुःखेऽपि मन्यते ॥ शितः कंडूयमानी पा करछ कररुहै। कुधीः ॥ १२९२॥ १२४३ BARI
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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