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________________ मूलाराधना সাখা (७२ मयुरुषक्रम व्याय दछृण अण्णदोसं सप्पुरिसो लज्जिओ सयं होइ ॥ रक्खइ य सयं दोसं व तयं जणजेपणभएण ॥ ३७२ ॥ योऽन्यस्य दोषमाशय चित्ते जिन्हेति सज्जनः ।। परापवादतो भीत: स्वदोषभिव रक्षति ॥ ३७९ ।। विजयोदया--दहूण अण्णदोस अन्यस्य दोष दृष्ट्रा सम्पुरिसो लज्जिओ सयं होदि सत्पुरुषः स्वयं लज्जा. मुपैति । पखास दोस व म्बदोषमिव न रश्नति । जगजपणभयेण जननिदाभयेन ॥ मत्पुरुषकम कथयनि । मूलारा-..र.क्रयदि छादयति । तयं तं अन्यदोगम । सत्पुरुषोंका कम कहते हैं अर्थ-सत्पुरुप दूसरोंका दोष देखकर उसको प्रगट नहीं करते हैं प्रत्युत लोकनिदाक भयमे उनके दोषों को अपने दीपोंके समान छिपाते हैं. दूसरोंका दोष देखकर सत्पुरुष लज्जिव होते है. अप्पो वि परस्स गुणो सप्पुरिसं पप्प बहुदरो होदि ॥ उदए ब नेल्लबिंदू किह सो जंपिहिदि परदोस ॥ ३७३ ।। स्वल्पोऽप्यन्यगुणो धन्य तैलर्थिदुरिचोदके ।। विवर्द्धने तमासान परदोषं न वक्ति सः॥ ३८० । बिजयोनया-भयो बि परस्स गुणो परस्य गुणः स्वल्पोऽपि । सप्पुरिसं पप्प सत्पुरुष प्राप्य । बहुदरो होइ अतिमहान् भवति । उदएव तेलबिंदू उदके तैलर्विदुरिव । किद्द सो जंपिहिदि परदोस कथमसौ इत्थंभूतः जल्पति परस्य दोषं ॥ मूलारा-सापुरिस पप्प सत्पुरुषं प्राप्य ।
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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