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________________ आया मूलाराधना hara B विजयोदय-सीदुहळु हातण्टा किलागिदो शीतेनोष्णेन क्षुधा पीडिता कुपितो भवेत् । तिव्यदयणाय वा तीमबेदनया वा फुपिनो मयांदोल्लंघनर्भयेत् ॥ मूलारा-किलामिडो पीडितः । मेरं मर्यादा प्रतिपत्रानुष्ठानम् ॥ अर्थ - शीत, उष्ण, भूख और प्यास इनसे पीडित होनेसे क्षपकको क्रोध उत्पन्न होता है. अथका की तीव्रवेदनासे भी विह्वल होकर क्रुद्ध होता है और मर्यादा तोडनेकी इच्छा करता है. उस समय आचार्य उसको शांतचित्त होकर प्रसत्र करते हैं. णिन्वबएण तदो से चित्तं खवयस्स णिव्ववेदव्वं ॥ अक्योभेण खमाए जुत्तेण पणठमाणेण || ४९८ ॥ निर्थापकया शांतन शमनीयः स सूरिणा ।। क्षमापरेण वीरेण कुर्वता चित्तनिर्ति ।। ५१५ ।। बिजयोदया--णिव्यवरण संतोषमुत्पादयता सूरिणा । तदो सतः। से खवयस्स चित्तं तस्य कुपितस्य मर्यादा भेलुमिच्छतो वा। चिलं णिस्वेदन्यं चित प्रशांति नेयं । अश्वोभेण चलनरहितेन व्यवस्थावता । खमार जुत्तेण क्षमया युक्तेन । पणठमाण प्रनष्टमानेन । न हिरोपी मानी वा सूरिः परखिसकलंक प्रशमयितुं रहते ततो निकषायेण माध्यमिति भावः ॥ मूलारा--णिबवगेण संप्तोपोत्पादकेन । सदो कोपपरिणतिमयादाभेवेच्छार्नतरं । णिव्ववेदठव प्रशमनीयं । अक्खोभेण चलनरहितेन उद्वेगमुक्तमत्यर्थः॥ इसही विषयको आगेकी गाथामें आचार्य स्पष्ट करते हैं अर्थ--संतोष उत्पन्न करनेवाले आचार्य तदनंतर कुपित अथवा मयांदा तोडनेको जो उतारू हुआ है ऐसे क्षपकका चित्त शांत करते हैं. आचार्य अपना चित्त क्षुब्ध नहीं होने देते हैं, वे स्वयं क्षमाधारण करते हैं. अभिमानका त्याग करते हैं. क्योंकि रोपवाले और अभिमानयुक्त आचार्य दुसस्का मन प्रसन्न करने में प्रयत्न नहीं करते हैं. इसलिये आचार्य में कषायका अभाव होना चाहिये. अर्थात् निष्कपाय आचार्य ही क्षपकका क्रुद्ध मन शांत कर सकते हैं ऐसा अभिप्राय समझना चाहिये. . .
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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