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मूलाराधना
आश्वास
पृथिवीशिळासंस्तरासंपसौ तृणसंस्तरविधानमुपदिशति
भूलारा-पुन्वुत्ताणि संस्तरसूत्रोक्तानि । निःसंधिनिश्च्छिद्रनिर्जन्तूनि, मृदूनि, प्रतिलेखनयोग्यानि । शरीरस्थिति साधनमात्राणि च । जाचित्ता प्रामं नगरं वा प्रविश्य प्राध्य गृहीतानि । पुबुत्ते सालो कविस्तीर्ण विश्वस्तासुषिरनिलिनिजतुके। जदणाए तृष्णप्रधकरणसंस्तरभूमिप्रतिलेखनलक्षणेन यत्नेन । संघरिशा यथाविधि तृणसंस्तरं तारशिरस्क पूर्वशिरस्कं वा कृत्वा तत्रात्मानं निर्वापयतीति पूर्वेण संबंध
अर्थ-पूर्वोक्त स्थंडिलपर तृपको पसारना चाहिये वह तूण ग्राममें अधत्रा नगरमें जाकर याचना करके आना पाईये. छिद्रहित, जहरहित, दुपस्थिरताके लिये कारण, प्रतिलेखनाके योग्य ऐसा वह तृण उस स्थडिलपर प्रयत्नसे पसारना चाहिये. वह स्थंडिल भी प्रकाशयुक्त, विस्तीर्ण, छिद्ररहित, बिलरहित, निजंतुक होना चाहियेउस स्थंडिलपर यत्नसे तृप विछाना चाहिये. अर्थात तृणको पृथक्करण करना, संस्तरकी भूमिका प्रतिलेखन करना, झाडकर स्वच्छ करना यहाँ इस कृत्योंको यत्न कहते है. पूर्व दिशा अथवा उत्तर दिशाको मस्तक करने योग्य तृणकी रचना करनी चाहिये. तदनंतर मस्तक बगैरे शरीरके अवयव और पांच पिच्छसि प्रमार्जित करने चाहिये.
Anision
पाचीणाभिमुहो वा उदीचिहुत्तो व तत्थ सो ठिच्चा ॥ सीसे कदज़लिपुड़ो भावेण विसुद्धलेस्सेण ॥ २०३७ ॥ भावशुद्धिमधिष्ठाय लेश्याशुद्धिविवर्द्धितः ।।
कर्मविध्वंसनाकांक्षी मूर्धन्यस्तकरद्वयः ॥ २१०९॥ विजयोदया-पाचीणाभिमुखोपा उनीचिनुत्तो व तत्थ सो ठिच्चा प्रामुखो उत्तराभिमुखो या भूत्वा तत्र संस्तरे संस्थित्वा । सीसे कदंजलिपुडो मस्तके कृतांजलिः | भावण घिसुद्धलेस्सेण विशुमलेश्यासमन्वितेन भावन ॥
स्वयं स्वनिर्यापणविधि गाथापंचकेनोपदिशति
मूलारा-पाचीणाभिमुहो पूर्णाभिमुखः । उपीचिहुत्तो उत्तराभिमुखः । तत्थ पृथिव्याघन्यतमसंस्तरे । सो इंगिनीमरणोधतः साधुः । ठिमा उद्रस्थित्वा, पर्यफायासनेनपार्श्वशयनेन वा यथाशक्त्ययस्थाय । बिसुलेरसेण पीता. दिलेश्यासमन्वितेन ।
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