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मूलारामना
मायामा
अवस्थायें संपूर्ण पदार्थोकी होती हैं. ऐसी यदि प्रक्रिया माने तो उत्पन्न हुए पर्यायका जो नाश उसकोही मरण कहना चाहिये. देवपना, मनुष्यपना, तिर्यचपना, और नारकपना इन पर्यायोंका नाश होना यह यहां मरण शब्दका वाच्यार्थ है. अथवा प्राणोंका त्याग बद्द मरण शब्दका अर्थ है. अत एव 'मुख् प्राणत्यागे' ऐसा मृ धातुका अर्थ धातुपाठमें है. उसी तरह प्राणोंको ग्रहण करना यह जन्म शब्दका अर्थ है. अर्थात् प्राण धारण करना यह जीवित है. प्रार्णा द्रव्यप्राण व भावप्राण ऐसे दो भेद है. स्पर्शनादिक पांच इंद्रिया, मनोचल, बचनबल और कायबल श्रासोच्छास और आय ऐसे दस भेद द्रव्य प्राणोंके है. ये द्रव्यप्राण पुद्गलात्मक हैं. ज्ञान, दर्शन, चारित्र ये भावनाण हैं. भावप्राणोंकी अपेक्षासे सिद्धांमें जीवित माना गया है.
आयुष्यके दो भेद हैं पहिला भेद अद्धायु और दुसरा भेद भवायु, भवधारण करना बह भवायु है. शरीरको भव कहते हैं. इस शरीरको आत्मा आयु कर्मके उदयका साहाय्य प्राप्त करके धारण करता है. अतः शरीर धारण करनेमें असमर्थ ऐसे आयुकर्मको भवायु कहते है. इस विषयमें अन्य आचाय ऐसा कहते है,
देहको भव कहते है. वह भय आयु कर्ममे धारण किया जाता है. अतः भवधारण करनेवाले आयु कर्मको भवायु ऐसा कहते हैं, आयु कमके उदयसे ही उसका जीवन स्थिर है. और जब प्रस्तुत आयु कर्ममे भिन्न अन्य आयु कर्मका उदय होता है नर यह जीव मरणावस्थाको प्रान होता है. मरण समयमें पूर्वायुका विनाश होता है.
इस विषय में पूर्वाचार्य ऐसा कहते हैं
अदायके विषय में विवेचन-अदा शब्दका काल एसा अर्थ है. और आय शब्दसे टव्यकी स्थिति सा अर्थ समझना चाहिये. द्रव्योंका जो स्थितिकाल उसको अडायु कहते है. द्रव्याथिक नयकी अपेक्षासे द्रव्योंका अद्धायु अनाद्यनिधन है अर्थात् द्रव्य अनादि कालसे चला आया है और वह अनंत कालतक अपने स्वरूपसे च्युत न होगा इसलिये उसको अनादि अनिधन भी कहते हैं, पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे जब विचार करते हैं तो अद्धायुके चार भेद होते है, वे इस प्रकार है-१ अनाद्यनिधन २ साधनिधन ३ सनिधन अनादि ४ सादि सनिधनता.
चैतन्यादिकगुण, रूपादिकगुण, गविहेतुत्य, स्थितिहेतुत्व इत्यादि सामान्य धर्मापेक्षया द्रष्योंकी अनाध