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मुलाराधना
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निश, संभ्रमः वत्थतिकूलवृत्तिरित्येवमादयः । पियहिंदे य परिणामः । गुरोर्यत्मयं तस्मै यद्धितं आत्मने वा तत्र परिणामः । णादयो ज्ञातव्यः । संखेत्रेण समासेन । एसो एषः । माणस्सिगो मानसिकः । विणओ विनयः ।
मानसविनयग्रह
भूलारा- पापवियोत्तिय परिणामवज्जणं । पापान्यशुभकर्माणि तान्येव विशिष्टं स्रोतः प्रवाह: अविच्छेदेन प्रवृत्तः । पापविस्रोतः प्रयोजनं येषां ते पापविसोतिकाः ते च ते परिणामाइन ते चेह गुरुविषयास्तद्विनयस्य प्रस्तुत्वा । आत्मनो यथेष्टचारित्व निवारणजनितः क्रोधो अविनीतादर्शनादनुग्रहा भावमपेक्ष्य मां नाध्यापयति पूर्वच भया मह संभाषणं न करोतीति वा को गुरुविनये आलस्यं, गुरु प्रत्यक्षा, निंदनमसंयम स्वत्प्रतिकूलवृत्तितेत्येवमादयः । पियहिदे गुरोर्चत्प्रियं स्वचयति तस्मिन् ।
अर्थ -- जिससे पापसमुदायका जलप्रवाह के समान अखण्डरूपसे आगमन होगा ऐसे परिणामोंको अपने हृदयमें मानसिक विनय पालन करनेवाले मुनिओने उत्पन्न नहीं होने देना चाहिये. यहा गुरुविनयका प्रकरण है इसलिये गुरुविषयका अशुभ परिणाम मनमें उत्पन्न न होने देवें
गुरु जब शिष्यका स्वैराचार देखते हैं तब वे उसका निवारण करते हैं. ऐसे समय में शिष्य अपना मन यदि क्रोधसंद करेगा तो अशुभ कर्मका आसव होने लगेगा. शिष्यकी उदंडवृत्ति देखकर गुरु उनपर अनुग्रह नहीं करते हैं, तब मेरेको गुरु पढाते नहीं हैं, पूर्वके समान मेरेसे संभाषण नहीं करते हैं ऐसे विचार कर गुरुविषयक क्रोध शिष्य के मन में उत्पन्न होता है, यह पापागमनका कारण होता है ऐसा समझकर छोड़ देना चाहिये. गुरु विनय में आलस्य करना, गुरुकी अवज्ञा करना, निंदा करना, उनका आदर न करना, उनके विरुद्ध चलना ये सच कुचेष्टायें छोड़ देनी चाहिये. गुरुको जो प्रिय लगे और जिससे उसका हित होगा, स्वयंका भी जो हित करेगा ऐसा परिणाम - संकल्प मनमें उत्पन्न करना चाहिये. इस तरहसे मानसिक चिनयका संक्षेपसे वर्णन किया है.
एसो पक्खो विणओ पारोक्खिओ वि जं गुरुणो || विरहमि विज्जिइ आणाणि सचारिया || १२६ ॥
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