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मूलाराधना
आवास
अतः इससे मेरा कुछ प्रयोजन सिद्ध होगा नहीं इस विचारसे वैराग्यको प्राप्त होकर संवेगतत्पर होता है,
कोई क्षपक उस आहारों में से थोहा आहार उठाकर अपने मुंहमें डाल कर ददनतर हाप ! अब तो मैं अन्तिम समयको प्राप्त हुआ हूं इस बाहारसे मेरा क्या मतलब है ऐसा विचार कर विरक्त और संसारभीत होता है, कोई क्षपक संपूर्ण आहारका भक्षण कर उससे विरक्त होता है. हाय मरको धिक्कार हो. मैं अन्तिम समयको प्राप्त हुआई, ऐसे विचारसे विरक और भयभीत होता है, मनोज्ञ विषयोंका सेवन करते रहनस वारंवार अभिलाषा बढती हो जाती है. यह अभिलाषा विषयापर अनुराग उत्पन्न करती है. अनुगगसे कर्मबंधन होता है और यह कर्मबंध संसारसमुद्रमें प्राणीको पटक देता है, इस प्रकारके विचारस क्षपक आहारका त्याग करता है. प्रकाशन प्रकरण समाप्त हुआ.
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हाणी इति सूश्पद ब्याचष्टे
कोई तमादयित्ता मगुण्णरसवेदणाए संविहो ॥ त चेवणुबंधेज्ज हु सब्ब देसं च गिद्दीए ॥ ६९५ ॥ वल्भित्या सुंदराहारं रसास्वादनलालसः ॥ कश्चित्तमनुबध्नाति सर्व देशं च गृद्धितः ॥ ७२३ ।।
इति प्रकाशनम् । विजयोदया-कोई कश्चिद्यतिः । ते पशि जमाहारं । आदयिता भुक्त्वा । मगुगणरसंरक्षणाए मनोहरसानुभयनेन । संविशो मूच्छितः । तं चेवणुबंधेज हु तमेवास्वादित मनोज्ञाहारमनु बन्जीयात् । दर्शितप्येकं वा गिद्धोए गृदया।
कश्चिद्धीसत्वस्त दर्शितभाहारं सर्व भक्त्वा तासानुभवाविष्टस्तमेव सर्व तदेकदेश वा सुधा नित्यमभिलषेदि. त्याह--
मूलारा--आदइना-मुक्या । वेदणाए अनुभवन संविदो सम्मूछितः ।। एतां श्री विजयाचार्य उत्तरसूत्रे व्यायः । प्रकाशना । सूत्रत: २८ । अंकता ७ ।।
हानि नामक प्रकरणका विवेचन
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