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बलाराधना
आधा
कषायाग्निका परिहार करनेका प्रयत्न करता है उसके रामद्वे पोंकी उत्पत्ति नहीं होती है. कषायोंमें कौनसे दोष मरे | हैं इसका विचार कर उसका उपशमन करना चाहिये.
दुर्जनोंकी संगतीके समान ये कपाय हृदयको जलाते हैं. अशुभ अंग और उपांगोंकी रचना करनेवाले नाम कर्मके समान कषाय मुखको कुरूप करते हैं. नेत्रमें गये धूलिके कण जैसे आंखको लाल बनाते हैं वैसे कपायसे भी वह लाल होती है. बड़े जोरसे बहनेवाले वायुके समान कषाय शरीरको कंपित करते है. सुरापानसे मनुष्य चाहे जो बडबडता है से कयायवश हुआ मनुष्य बडबडता है, पिशाचग्रस्त मनुष्य के समान कुछ भी कार्य करने लगता है. यह कपाय सम्यग्ज्ञानरूपी नेत्रको मलिन करता है. सम्यग्दर्शनरूपी वनको उपद्धस्त कर देता है. चारित्ररूपी सरोवरको सुखा देता है. यह कषाय तपरूपी कोमल कमलाको दन्ध करता है, अशुभकर्मप्रकृतिको दृढ करता है, शुभकर्मक फलोंको रसहीन करता है. निर्मल मनको मलिन करता है. हृदयको निर्दय बनाना है. प्राणिऑकी हिंसा कगता है, असत्य भाषणमें मनुष्यको प्रवृत्त करता है, बड बटे गुणों को भी लांघता है. कीर्तिरूपी धनको नष्ट करा देता है. दूसराकी निंदा करवाता है महापुरुषोंके गुणोंको ढक देता है. मैत्रीको तुवाता है, किये गये उपकारको भुला देता है. अपकारका पार सिखाता है. बहे भयंकर नरक सहमे प्राणीआको गिराता है. और दुःवरूपी भोवरोंमें डुबाता है. इस तरह यह कषाय अनेक अनोंको उत्पन्न करता है ऐसी भावना मनमें कर रागदेषोंकी उत्पत्तिको न होने देना चाहिये.
रागद्वेषप्रशांत्युपायकथनाय गाथा---
जावंति केइ संगा उदीरया होंति रागदासाणं ॥ ते वजंतो जिणदि हु रागं दोसं च णिरसंगो ॥ २६४ ॥ रागद्वेषादिकं साधोः संगाभावे विनश्यति ॥
कारणाभावतः कार्य किं कुत्राप्यवतिष्ठते ॥ २६४ ॥ विजयोदया--जाति केर संगा यावन्तः केचन परिप्रहाः । उदीरमा होति रागदोसाणं उत्पादका भवन्ति रागद्वेषयोः ॥ ते बजतो तान्परिनहानिराकुर्वन् । जिणधि सुजयत्येव । राग दोसं च रागवषौ । निस्संगो नि-परिप्रहः ।
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