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________________ मलाराधना आश्वासः ११५५ रक्षणस्थापनादीनि कुर्वाणोऽयस्य सर्वदा॥ निरस्ताध्ययनो ध्यान व्याक्षिप्तः कुरुते कथम् ॥ १२०२॥ विजयोव्या-नाथस्स गणरक्षण परिग्रहादानं, तक्षणं, तसंस्कारे च नित्यं कुर्वन् । व्याक्षिप्तचितः कर्य शुमध्यानं कुर्यात् विमुक्तस्वाध्यायः । एतदुक्तं भवति-व्याक्षिप्तचित्तस्य न खध्यायः असति तस्मिन्वस्तुयाथात्म्यांविदुषः ध्येयैकनिष्टं ध्यान कमिव वर्तते । परिपहात्वाभ्यायध्यानविघातस्ततश्च संघरनिर्जराधिरहात्कुतो मोक्षो भयेदित्यनुशास्ति--- मूलारा-विविखतमणो व्याकुलचित्तः । मुक्कसज्माओ त्यक्तश्रुतभावनाकः । प्रथमहणादिना चित्तस्य विक्षेपे सति स्वाध्यायासंभवात् । वस्तुयाथात्म्यमानतः कथमिव ध्येयैकनिष्ठ ध्यानमुपतिष्टत इति भावः ।। यही अभिप्राय आगेकी गाथामें आचार्य कहते हैं अर्थ- परिग्रहका स्वीकार करना, रक्षण करना, उनमें संस्कार करना ही कार्य में जिसका निन लमा है ऐसे मनुष्यकी धर्मध्यानमें प्रवृत्ति नहीं होती है. इस परिग्रहके जाल में पड़े हुए मनुष्य स्वाध्याय भी नहीं कर सकते हैं. चित्तकी एकाग्रता होनेपर स्वाध्याय सिद्ध होता है. परंतु चित्तका लय परिग्रह में ही होनेस स्वाध्यायसे मनुष्य विमुख होता है. स्वाध्यायसे वस्तुओका यथार्थ स्वरुप जब मालूम होता है तब चित्तकी एकाग्रतासे धर्म ध्यानकी सिद्धि होती है. स्वाध्यायविमरख और परिग्रहासक्त लोकॉको यथार्थ वस्तुस्वरूप मालूम न पडनेसे शुभ ध्यानकी सिद्धि होती नहीं है. परभवन्याप्य दोषं परिग्रजमुखायातमुपदर्शयनि गंथेसु घडिदहिदओ होइ दरिदो भवेसु बहुगेसु ॥ होदि कुणतो णिच्च कम्मं आहारहेदुम्भि ॥ ११६५ ॥ अर्थप्रसक्तचित्तोऽस्ति निःस्वो बहुषु जन्मसु ।। ग्रासार्थमपि कर्माणि निंयानि कुरुते सदा ॥ १२०१ ॥ विजयोदया-गयेसु घडिवहिवओ ग्रंथासक्तचित्तः बहुषु भवेषु दरिद्रो भवति । आहारमात्रमुदिश्य नीचकर्मकारी भविष्यति । शिविकोबदन, उपानदेवम, पुरीषमूत्रायपनयनं त्यादिकं भीखं कर्म ।
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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