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________________ मूलारावना । पुनरप्येति समेव वेशं । तह संसारमदीदि खु संसारशब्दात्परः खु शब्दो दृष्टव्यः, तेनायमर्थः-संसारभेषाधिगच्छतीति । दूर पि गदो महद्धिक स्वादिस्थानमुपगतः, णिदाणगदो निदान परभवे सुखातिशये मनःप्रणिधानं गतः ।। निदानिनः संमारावन समर्थयते -- मूलारा-सुत्त अद्भसणो दोर्पसूत्रनियंत्रितः पक्षी ! नहिं स्वस्थानमेब । हु संसार मेवाधिगच्छत्तीत्यर्थः । दूर । महर्बिकस्वर्गादिस्थानं । शिवाणगदो परभवसुखादिशायिमन:प्रणिधानं प्रातः || अर्थ-दोगसे बंधा हुआ पक्षी दूर जाकर भी पुनः अपने पूर्व स्थानपर आता है वैसा यह जीव भी निदानके प्रभावसे महाऋद्धिसंपन्न स्वर्गादि स्थानमें जाकर पुनः संसारमें भ्रमण करता है. SIR कश्चिद्धःकारागृह यता कालेन तय द्रविण दास्यामि भवतीयमेव सावत्प्रयच्छति गृहीत्वा इव्यं रोधकेभ्यः प्रदाय स्वगृहे सुख घसमपि पुनर्यथा तैरुत्तमणैर्धार्यते तथैव निदानकारी कृतेन पुण्येन परिप्राप्तस्थर्योऽपि पुनरधः पततीति निगवति दाऊण जहा अत्यं रोधणमुक्को सुई घरे बसइ । पत्ते सभए य पुणो रंभइ तह चेव धारणिओ ॥ १२७९ ॥ अधमर्णो निजे गेहे रोधमुक्तो सुखं वसेत् ॥ दत्वार्थ समये प्राप्त यथा भूयो निरुध्यते ॥ १३२३ ॥ विजयोदया-दाऊण दत्वा, अर्थ अर्थ, यह यथा, रोधणमुक्को रोधेन मुक्तः, मुहं धरे वसदि षु सुखेन गृहे यसति । एने समये य प्राप्त चावधिकाल, पुणो रंभा पश्चाच्च संभ्यने, सथा चेय पूर्ववदेघ, धारणिनी अधमर्णः॥ निदानेन विर्य प्राप्य पुनरधमयोनिषु पततीति निदर्शनपुरासरं गाथाद्वयेनोपदिशति मूलारा-अत्थं कलांतरस्कंधकादिद्रव्यं । रोधगमुक्को चरणकाद्विच्युतः । समय इयता कालेन पुनदास्यामि इति प्रतिपन्नावधिकाले । रंभदि धरणके प्रियते । तधा चेव पूर्ववदेव । धरणिगो अधमर्णः ॥ कारागृहमें कैद किया हुआ कोई मनुष्य इतने दिनके अनंतर मैं तुलारा द्रव्य देऊंगा इस समय तुम अपना धन मेरको दो ऐसा कहकर उनसे धन लेकर यह कैदमें रखनेवालाको देकर उनसे अपनी मुक्तता कर लेता | है. घरमें जाकर वह सुखस रहता है. परंतु पुनः चे कर्जा देनेवाले धनिक आकर उसको पकहते है. वैसी । १२६२
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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