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________________ मूलाराधना ९५० होता है, जीव मरण करो अथवा न करे परिणामके वश हुआ आत्मा कर्मसे चद्ध होता है ऐसा निश्चय नयसे जीवके बंधका संक्षेप से स्वरूप कहा है. जीव, उसके शरीर, शरीरकी उत्पत्ति जिसमें होती है ऐसी योनि इनके स्वरूप जान कर और उसके उत्पत्तिका काल जानकर पीडाका परिहार करनेवाला और लाभ, सत्कारादिकी अपेक्षा न करके तप करनेवाला जीवनजारा में आगम में विवेचन है ज्ञानी पुरुष कर्मक्षय करनेके लिये उद्युक्त होते हैं वे हिंसा के लिये उद्युक्त नहीं होते हैं. उनके मनमें श भाव - माया नहीं रहतीं हैं और वे अप्रमत रहते हैं इसलिये वे अवधक-अहिंसक माने गये हैं, जिसके शुभ परिणाम हैं ऐसे आत्माकं शरीरसे यदि अन्य प्राणि के प्राणका वियोग हुआ और बियोग होने मात्र से यदि बंध होगा तो किसी को भी मोक्षकी प्राप्ति न होगी, क्योंकि योगिओंको भी वायुकायिक जीवों के बधके निमित्तसे कर्मबंध होता है ऐसा मानना पड़ेगा. इस विषय में शास्त्रमें ऐसा लिखा है यदि रागद्वेषरहित आत्माको भी बाह्यवस्तुके संबंधसे बंध होगा तो जगतमें कोई भी अहिंसक नहीं है ऐसा मानना पड़ेगा अर्थात् शुद्ध मुनिको भी वायुकायिक जीवके वधके लिये हेतु समझना होगा. इसलिये निश्चयनयके आश्रयसे दूसरे प्राणीके प्राणका वियोग होनेपर भी अहिंसा में बाधा आती नहीं है ऐसा समझना चाहिये. गतिक्रियावान्प्ररूपयति - पादोसिय अधिकरणिय कायिय परिदावणादिवादाए ॥ एदे पंचपओगा किरियाओ होंति हिंसाओ || ८०७ ॥ पिकी कायिकी प्राणघातिकी पारितापिकी ॥ क्रियाधिकरणी चेति पंच हिंसाप्रसाधिकाः || ८३४ ॥ विजयोदया- पावोसियाधिकरणिय कायिय परिदावणादिवादार पादोसिय शब्देनेदारवित्तहरणादिनिमित्तः कोपः प्रद्वेष इत्युच्यते । प्रद्वेष पच प्राद्वेषिको यथा विनय एव चैनयिकमिति । हिंसाया उपकरणमधिकरणमित्युच्यत । हिंसोपकरणावानक्रिया अधिकरणिकी क्रिया । दुष्टस्य सतः कायेन वा चलनक्रिया कायिकी । परिताषो दुःखं दुःखो भावासः ६ ९५०
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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