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मूलाराधना
साथै समाभ्यर्य कृतपरिकर्मणा तेन मुमुक्षुणा कीम्गुणः सूरिरुपाश्रित इति पृष्टः सन् गाथानवत्या निर्यापका. पार्यगुणग्राम प्रपंचयिष्यन्नादौ तहणानष्ठावुरेष्टुं गाथाद्वयमाह
मूलारा-आयारवं आचारवान् । पकुव्यो प्रकर्ता । आयापायविर्दसी आयापाययो रत्नत्रयस्य लाभच्छेदयोदर्शनोद्यतः उप्पीलगो अवपीडकः॥
जिस आचार्यका आगंतुक मुनि आश्रय करता है उसमें कोनसे गुण रहते हैं इसका विवेचनअर्थ-आचार्य आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, कर्ता, आयापायदर्शनोद्यत, और उत्पीलक
होता है,
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अपरिस्साई णिवाबओ य णिज्जावओ पहिदकित्ती ॥ णिज्जवणगुणो वेदो एरिसओ होदि आयरिओ ॥ ४१८ ॥
एभिर्निर्यापकः सूरिर्गुणैरष्टभिरन्वितः ॥
दातुमाराधनामीशः पृथुकीर्तिरुपेयुष ॥ ४३० ॥ विजयोदया-अपरिस्साई अपरिनाबी । जिवापओ निर्धापषः । पहिदकित्ती प्रथितकीर्तिः । णिजयण गुणोतो निर्यापनगुणसमन्वितः। परिसभो होदि भापरिमोटरभवत्याचार्यः॥ मूलारा-जिज्जावगो-निर्यापकः । उक्तंच
आचारी सरिराधारी व्यवहारी प्रकारकः ।। आयापायदिगुत्पीडी मुखकार्यपरिस्रवः ।। एमिनिर्यापक रिर्गुणैरष्टभिरन्वितः ||
दातुमाराधनामीशः पृथुकीर्तिरुपेयुषे ।। अर्थ-आचार्य अपरित्रावी, निर्धापक, प्रसिद्ध कीर्तिमान और निर्यापकके गुणोंसे पूर्ण होते हैं, इतने गुण आचार्यमें होते हैं.
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