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आश्वासः
मूलाराधना
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न सत्यमित्येतापतो पचनं वक्तव्यं, सत्यमेष सदेव वक्तव्यमेव नेति प्रवीति
अण्णस्स अप्पणो वा विधम्मिए बिद्दवंतए कज्जे ॥ जं अ पुच्छिज्जतो अण्णेहि य पुच्छिओ जंप ॥ ८३६ ॥ स्वकीये परकीय बा धर्मकृत्ये विनश्यति ।!
स्वमपृष्टो वदान्यन्न पृष्ट एवं सदा वद ॥ ८४५ ॥ विजयोदया-अस्य अपणो वापि अन्यस्य आत्मनो वा धार्मिककार्य विनश्यति सति अप्ठोऽपि वृष्टि। अनतिपातिनि कार्ये पृष्ट एच बद नापृष्ठः ॥
जो सत्य है वह बोलना चाहिए ऐसा नहीं परंतु सत्य होकर जो प्राणिओंका कल्याण करता है वह भाषण बोलना चाहिए यही अभिप्राय आगेकी गाथामें कहा है
अर्थ-दूसरोंका अथवा अपना धार्मिक कार्य नष्ट होने का प्रसंग आनेपर बिना पूछे हि बोलना चाहिये. यदि कार्य विनाशका प्रसंग न हो तो जब कोई पूछगा तब बोला, नहीं पछेगा तो बोलना नहीं.
समनं वदंति रिसओ रिमीहिं विहिदाउ सव्व विज्जाओ। मिच्छस्स वि सिझंति य विजाओ मच्चवादिस्स || ८३७॥ गदांत ऋषयः सत्यं यद्विया निखिलाः कृताः ॥
तन्म्ले स्यापि सिध्यन्ति सर्वदा सत्यवादिनः ।। ८४६ ॥ विजयोदया-सच्चे घवंति रिसओ सत्यं वदंति यतयः । रिसीहिं विहिदामो यतिभिर्विहिताः सर्वविद्याः । मिच्छरसचि म्लेच्छस्यपि सिमंति सिध्यन्ति । विग्जाओ विद्याः । सव्वयादिस्स सत्यवादिनः ॥
अर्थ-ऋषिगण सत्यभाषण करते हैं. ऋषियोंने सर्व विद्यायें उत्पन्न की है. जो सत्यवादी है ऐसे म्लेच्छ को भी विद्यायें सिद्ध होती हैं.