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________________ आश्वासः मूलाराधना ९७१ न सत्यमित्येतापतो पचनं वक्तव्यं, सत्यमेष सदेव वक्तव्यमेव नेति प्रवीति अण्णस्स अप्पणो वा विधम्मिए बिद्दवंतए कज्जे ॥ जं अ पुच्छिज्जतो अण्णेहि य पुच्छिओ जंप ॥ ८३६ ॥ स्वकीये परकीय बा धर्मकृत्ये विनश्यति ।! स्वमपृष्टो वदान्यन्न पृष्ट एवं सदा वद ॥ ८४५ ॥ विजयोदया-अस्य अपणो वापि अन्यस्य आत्मनो वा धार्मिककार्य विनश्यति सति अप्ठोऽपि वृष्टि। अनतिपातिनि कार्ये पृष्ट एच बद नापृष्ठः ॥ जो सत्य है वह बोलना चाहिए ऐसा नहीं परंतु सत्य होकर जो प्राणिओंका कल्याण करता है वह भाषण बोलना चाहिए यही अभिप्राय आगेकी गाथामें कहा है अर्थ-दूसरोंका अथवा अपना धार्मिक कार्य नष्ट होने का प्रसंग आनेपर बिना पूछे हि बोलना चाहिये. यदि कार्य विनाशका प्रसंग न हो तो जब कोई पूछगा तब बोला, नहीं पछेगा तो बोलना नहीं. समनं वदंति रिसओ रिमीहिं विहिदाउ सव्व विज्जाओ। मिच्छस्स वि सिझंति य विजाओ मच्चवादिस्स || ८३७॥ गदांत ऋषयः सत्यं यद्विया निखिलाः कृताः ॥ तन्म्ले स्यापि सिध्यन्ति सर्वदा सत्यवादिनः ।। ८४६ ॥ विजयोदया-सच्चे घवंति रिसओ सत्यं वदंति यतयः । रिसीहिं विहिदामो यतिभिर्विहिताः सर्वविद्याः । मिच्छरसचि म्लेच्छस्यपि सिमंति सिध्यन्ति । विग्जाओ विद्याः । सव्वयादिस्स सत्यवादिनः ॥ अर्थ-ऋषिगण सत्यभाषण करते हैं. ऋषियोंने सर्व विद्यायें उत्पन्न की है. जो सत्यवादी है ऐसे म्लेच्छ को भी विद्यायें सिद्ध होती हैं.
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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