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________________ मूलाराधना ॥ आश्वास: रहता है. वे आमरण तरुण ही होते हैं. वे हमेशा देवांगनारूपी लतासमूहसे घिरे रहते हैं तो भी उनको इनसे | उत्पन्न होनेवाले सुखसे तृप्त होती नहीं. देवांगनारूपी लतावनकी आचार्य इस प्रकार निरूपणा करते है स्वाभाविक अर्थात् जन्मसे ही साथ उत्पन्न हुये ऐसे दिव्य अलंकार, पुष्पमाला, दिव्यवस, दिव्य एश्वयं एतद्रप स्कंधसे यह देवीलतावन सुंदर दीखता है, मन और नेत्रोंसे आदाद देनेवाले सौंदर्यपुष्पोंस यह देवीलताबन पुष्पित है. इन लताओंको विलास रूपी मनोहरता आती है, सुकुमारतारूपी नवीन कोमल अंकुर इनकी शोभा बढ़ाते हैं. ये लतायें अपने शरीरके सुगंधसे टिगंगनाओंका मुख मगधित करती हैं. इनका ज्वरोष्ट्रपल्लच मुंगाके समान मनको लुब्ध बनाता है. ये लताये कठिन, उन्नत अर्थात पुष्ट और गोल एम स्तनरूपी फलोंसे कमनीय दीखती हैं मदनरूप दक्षिण वायुके झकोरोसे ये डुलती हैं, सुंदर बाहुरूपी सुंदर शाखाभोसे मनाहर दीखती है. चमकीले सुवर्ण के कमरपट्टारूपी तटमे युक्त, कामजलसे भरा हुआ, ऐम विशाल जधन रूपी सरोवरले ये सोहती है, शब्द करनेवाले न पुररूपी भ्रमरोंसे कलकल शब्द करने वाली ऐसी देवांगनारूप लताओंसे धिरे होते हुए भी देय तृप्त नहीं होते हैं. और भी अनेक भाग्य पदाथोंसे उनका मन तृप्त होता नहीं, यदि देवोंके मन इतनी सुखसामग्री मिलनेपर भी अतृप्त ही रहता है, तो मनुष्यका मन कैसा तृप्त होगा, तीव्रतर पुरुषवेदका जब उदय होता है तब वह अग्नीके समान मनुब्धके मनको जलाता है. ऐसे समय स्त्रीसंमोगरूपी औषधसे भी उस मनकी जलन शांत नहीं होती है. स्वीसंगोगमे कामानि अधिक ही पदीप्त होती है. रूप, तारुण्य, विलास, चतुरता, सौभाग्यादिकप्ते एकसे दूसरी अधिक, दूसरीसे तीसरी अधिक ऐसी उत्तरोत्तर अधिक २ मंदरी स्त्रियां नजरमें आ जानसे उनके संगमकी मनमें अभिलापा बढ़ती है जिससे कामवदना पुरुषको अधिक व्याकुल करती है. कोइ लिया अपने पतिका त्याग करती है, अथवा मर जाती हैं. अश्वा बलवान पुरुष उनको हर करल जाते हैं, अथवा स्वयं यमके पाससे जकटा हुआ इच्छा न होते हुए भी स्त्रीको छोडकर यममंदिरको जाता है. ॥ ६७१
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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