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________________ मूलाराधना आश्वास: ६८. तथा निरीक्षते द्रव्यं यद्यत्तत्तज्जिघृक्षति ॥ जीवस्त्रिलोकलामेऽपि लोभग्रस्तो न तृप्यति ॥ ८६६ ॥ विजयोदया---एवं जं जं पस्सदि गवं यत्पश्यति व्यं । तं तं पाबिहिलसदि । तत्तव्यं प्राप्तुमभिलपति । सचजण वि सणापि जगता । लोभाइट्टो जीवो ण तिम्पेदि जीवो लोभारिष्टो न तृप्त्यति ॥ दार्शन्तिकमें ऊपरका आशय संघटित करते हैं अर्थ-वैसे लोभी मनुष्य जो जो वस्तु देखता है वह वह प्राप्त कर लेने की इच्छा करता है. लोभवश हुआ मनुष्य सर्व त्रैलोक्यकी प्राप्ति होनेपरमी तृप्त होता नहीं. DO जह मारुवो पबहइ खणण बित्थरड अब्भयं च जहा ॥ जीवस्स तहा लोभो मंदो वि खणेण वित्थरइ ॥ ८५६ ॥ यथा विवद्धते वातः क्षणेन मथते यथा ॥ प्रथते क्षणतो लोभस्तथा मंदोऽपि देहिनः 11 ८६७ ।। विजयोक्या-जह मायभो पघट्ट यथा मारतः प्रबर्द्धते। खणेण क्षणेन वित्थरदि विस्तीणों भवति । अभयं च जहा यथा चाळ । जीवस्स जीवस्य । तह तथा लोभो मंवोऽपि भणेनैव विस्तीर्णतामुपयाति । अर्थ--जैसे मंद वायु एक क्षणके अनंतर बदकर विस्तीर्ण होता है. अथवा जैसे आकाशमें मेघ प्रथम थोडे रहते हैं और अनंतर बढ़ते बढ़ते सर्व आकाश व्याप्त कर देते हैं एवं जीवका लोभ प्रथम मंद होता है नंतर क्षणसे विस्तीण होता है. बाध्यसन्निधिमपेक्ष्य लोभकर्मण उदयो जायते तस्य लोभः संवर्द्धते तदवृद्धौ नायं दोष इति व्याच लोभे य बढिदे पुण कज्जाकजं णगे ण चिंतेदि ॥ तो अप्पणो त्रि मरणं अगणितो चोरियं कुणइ ॥ ८५७ ॥ प्रवृद्धे च ततो लोभे कृत्याकृत्यविचारकः ॥ स्वस्य मृत्युमजानानः साहसं कुरुते परं ।। ८५८॥
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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