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________________ मूलारांपना माश्वासः मूलारा-जदिवि यद्यपि । विचिदि स्फेटयति । ते वेव संघटनादयः । से समंधस्य यतेः । लग्या अनुषक्ताः । तज्जोणि विजोयणा तेषां जन्तुनामुत्पत्तिस्थानबियोगः ॥ अर्थ-यधपि जीयों को अलग करने पर भी संघर्षणादिक दोष परिग्रहवानके होते ही हैं. जब जीवोंको पृथक किया जाता है तव उनको अपने उत्पत्तिस्थानका वियोग होता है. १९५३ TA धमचिसपरिप्रहगतदोषमभिधाय सवित्तपरिप्रहदोषमार सच्चित्ता पुण गंथा वधंति जीवे सयं च दुक्खंति ॥ पावं च तण्णिमित परिगिण्हंतस्स से होई ॥ ११६२ ।। सचित्ता अगिनो नन्ति स्वयं संसक्तमानसाः ॥ . ग्रहीतर्जायते पापं ततिमिराममंशायम् ।। १२०८ ॥ विजयोदया-सचित्ता पुण गंधा वति जीचे परिग्रहाः दासीदासगोमहिण्यादयो प्रति । जीवान्स्वयं च दुःखिता भवति । कमपि नियुज्यमानाः कृष्यामिके पार्य च स्यपरिगृहीतजीवकृतासयमनिमित्तं तस्य भवति । एवमचिनग्रंथगतान्दोषान्प्रकाश्व सचितग्रंथगनान्दोपानाह--- मूलारा-दुक्यति कुष्यादिकर्मगि भियुज्यमाना दुःखिता भवन्ति । तगिमित्तं परिगृहीतजीवकृतासंयमतदुःग्योत्पादनहेतुकं । अर्थ-जो सचित्त परिग्रह है अर्थात् दास दासी, गो महिय बगैरे सजीव परिग्रह हैं वे जीवोंका घात करते हैं. और खनी वगैरह कमोंमें नियुक्त करनेयर दुःखी होते हैं. जिनका परिग्रहबानने स्वीकार किया है ऐसे दास दास्यादिक असंयमरूप प्रयुनिकर जो पाप उत्पन्न करते हैं उसका संबंध परिग्रहवान के साथ होता है. अर्थात् स्वामी की प्रेरणासे वे असंयमरूप कार्य करनेसे स्वामी पापसे बद्ध होता है. इंदियमयं सरीरं गथं गेण्हदि य देहसुक्खत्थं ॥ इंदियसुहाभिलासो गंथग्रहणेण तो सिद्धो ॥ ११६३ ॥
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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