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मूलाराधना
आश्वास:
तथापि लिंगसही इसका संबंध है अतः यह उसका ही संबंधी है ऐसा कह सकते हैं.
अर्थ-देवबंदना के लिये जब मुनि जाते हैं तब बहुत मावधान होकर सूर्यके प्रकाशमें गमन करते हैं. जाते समय जहां ये पांव रखना चाहते हैं उस जमीनपर यदि चीटी वगैरे जन्तु दुष्परिहार्य होंगे तो उनको मृदु पिच्छिकासे दूर करके आगे पांव रखकर गमन करते हैं. अथवा पूर्व भृमीसे आगेकी जमीन यदि भिन्न स्वभाव-रंग वंभरहम युक्त होगी तो मुनि प्रथम पिच्छिकासे पावोंकी धूल हटाकर उसमें प्रवेश करते हैं. यदि पान में प्रवेश करना हो नो पाणिनिछका अपने शरीर पर फेरकर वहां के त्रसजीव हटाते हैं और नदनंतर जलमें प्रवेश करते हैं. ज्ञान और चारित्रके साधन शास्त्र वगैरहको ग्रहण करते समय वे पिच्छिकासे माफ करके ग्रहण करने चाहिये, जब ज्ञानचारित्रके शास्त्रादिक साधन जमीनपर रखना हो तो पिच्छिकासे जमीन और शास्त्रादिक माफ करके रखना चाहिये. और अलग अलग रखते समयमें भी पिच्छिकासे उनको स्वच्छ करना चाहिये.
शरीरके मलमूत्रादिक जहां फेकना हो उस स्थानको पिरिडकासे साफ करनेसे वहाँक त्रस जीव चिना बाधा दूर हो सकते हैं. जब मुनि बैठते हैं, खडे हो जाते हैं, सो जाते हैं, अपने हाथ और पांव पसारते है, संकोच लेते हैं, जब वे उत्तानशयन करते हैं, एक बाजूसे दूसरी बाजूपर मुडकर सोते हैं तब अर्थात् इतने कार्य करते समय ये अपना शरीर पिच्छिकासे स्वच्छ करते हैं ऐसा करनेसे शरीरपर सजीव हो तो चे विना तकलीफके दूर होते हैं, और मुनिओंका आचारक्रम भी इस कृत्यसे पाता जाता है.
पडिलेहणण पाडिलेहिजइ चिण्हं च होइ सगपक्खे ।। विस्सासियं च लिंगं संजदपडिरूबदा चेव ॥ १७ ॥ स्वपक्षे चिहमालम्व्यं साधुना प्रतिलेखनम् ॥
विश्वाससंयमाधारं साधुलिङ्गसमर्थनम् ॥ ९८ ॥ विजयोदया-जिगह न होदि त्रितां भजते । सगपरखे स्वप्रतिज्ञायां । सर्वजीयदया हि यतः पक्षः। विस्सासियं च विश्वासकारि च जनामा । सिंग प्रति सनाख्यं कथमयमतिसूक्ष्मान्कुंथ्यावीनपि परिहतुं गृहीतप्रतिलेखनोऽस्सा
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