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________________ मूलाराधना १३६८. विजयोदया-पस उद्याओ कर्मणामात्रवद्वारनिरोधें उमाओ उपायोऽयं सर्वोऽभिहितः । पौराणस्य कर्मणस्तपसा यो भवति । संवरपूर्विका निर्जरा मुक्तये भवति न संवरहीनेति पूर्व संवरोपन्यासः ॥ एवं मंत्रपूर्वेत्र निर्जरा निर्वाणाय प्रभवतीति वाच्यसा जल्या पासयनि- निनिमित्त वपास गाथासप्रि मूलारा एक मित्तस्स य मणमित्यादिसूत्रसमुदाय निर्दिष्टः ॥ उपर्युक्त अर्थका उपसंहार अथवा आगे कहा हुआ अधिकार उत्तर गाथासे कहते हैं अर्थ -- जितना कर्तव्य पूर्व में कहा है वह सर्व कर्मागमनका निरोध करनेका उपाय है तथा इस कर्तव्यका पालन करनेसे पूर्ववद्ध कर्मका क्षय भी होता है. तपसे पूर्व कर्मका क्षय होता है. संवरसहित निर्जरा कर्मका नाश कर मोक्ष प्राप्तिका भी कारण होती है. संवरहीन निर्जरा मोक्षका कारण नहीं है यह दिखाने के लिये आचार्यने प्रथम संवरका गाथामें उल्लेख किया है. अभंतर बाहिरगे तवम्मि सर्त्ति सगं अग्रहंतो ॥ उज्जम सुहे देहे अपडिवो अगलतो तं ॥ १४५० ॥ यत्तस्वाभ्यंतरे बाह्ये स्वां शक्तिमनिगृहयन् ॥ तपस्य नलसः स त्वं देहसौख्यपराङ्मुखः । १५०९ ।। विजयोदया - मर्मतरा हिरणे अभ्यंतरे बाधे च तपस्युद्योगं कुरु स्वां शक्ति गूहमानः । सुखे शरी श्रानासक्तिः बनालस्यः । न हि शरीरे सुने घर बादरवांस्तत्प्रतिपक्षभूते तपसि प्रयतते । न चालसः प्रवर्तते तपसि । प्रत्यूहभावेन स्थितं सुत्रे शरीरे प्रतिबद्धत्वमलसत्वमावेदितमनेन ॥ सतत् परिहरन स्वशक्त्या त्वमुद्यच्छेत्यनुशास्ति -- मूला-अप न चालसः । अर्थ --- हे क्षपक ! तू अभ्यंतर तप और बाह्य तपमें अपनी शक्ति न छिपाता हुआ उद्यम - प्रयत्न कर. सुखमें और शरीर में तू आसक्ति मत कर. आलस्यको जिसने छोडा है वह शरीर में और सुखमें आसक्त न होकर १७२ सुखे दे बानासक्तः । न हि शरीरे सुखे वा आदरवांस्तत्प्रतिपक्षभूते तपसि प्रयत आश्वासः ६ १३६९
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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