________________
मूलाराधना
आश्वाहा
.९८२
अथम्मि हिदे पुरिसो उम्मत्तो विगयचेयणो होदि ॥ मरदि व हक्कारकिदो अत्थो जीवं खु पुरिसस्स ॥ ८५९ ॥ द्रविणे अहिलीभूय म्रियतेऽथ हृते नरः ।।
हाकारमुखरः क्षिमं नृणामों हि जीवितम् ॥ ८७७ ।। विजयोदया--अस्थम्म हिदे अथें हते परेणात्मीये । पुरिसो पुरुषः। उम्मत्तो विगदचयपो होदि उन्मत्तो विचेतनो भवति । चेतनाविशेषे ज्ञानपीये चेतनाशदो घर्तते नएज्ञानो भवतीति यावत् । अन्यथा चैसम्यस्य विनाशाभाचात् ।। मरदि व म्रियत या ॥ अरथे हकारकिदो अर्धे हारवं कुर्वन् । यस्थो जीवं खु पुरिसस्स पुरुषस्य जीचितमर्थः॥
अर्थ-दूसरेके द्वारा अपना धन लूटा जानेपर मनुष्य उन्मत्त अर्थात् पागल बनता है, झानरहित होता है, मेरा धन मेरा धन ऐसा बारबार कहता हुआ प्राणोंका भी त्याग करता है. इसलिये 'धन मनुष्यका प्राण है' ऐसी जो लोकोक्ति जगमें प्रचलित हुई है उसमें सत्यता है.
-
अडईगिरिदरिसागरजुडागि अति अस्थलोभादो ॥ पियबंध चेवि जीवं पि णरा पयहंति धणहेदं !! ८६ ॥ विशंति पर्वतेऽम्भोधौ युद्धदुर्गवचनादिषु ॥
त्यति द्रव्यलोभेन जीवितं बांधवानपि ।। ८७ ॥ घिजयोदया-अजुईगिरिदरिसागर अरबों, दरी, गिरि, सागर, युद्धं प्रविशन्ति अर्थलोभात् । प्रियाबंधन जीवितं च नरा जहति धननिमित्तं । सर्वेभ्यो धनं प्रियतमं यतस्तदार्थनः सर्वं त्यजन्ति इति भायार्थी माथायाः।
अर्थ--वनके लोभसे मनुष्य जंगल, पर्वत, समद्र और युद्ध में प्रवेश करते है. घनके निमिचसे अपने प्रियवधुओका और प्राणोंका भी त्याग करते हैं. प्रिय बांधव और प्राणोंमे भी धन मनुष्यको अत्यंत प्रिय है क्यों कि इसके लिये धनार्थी सबोंका त्याग करते हैं.
अत्थे संतम्मि सुहं जीवदि सकलतपुत्सबंधी ।। अत्थं हरमाणेण य हिंदं हवदि जीविदं तेसि ॥ ८६१ ॥
२८२