SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आधासः मलाराधना २५० - - पिन - - मुनिको उपदेशदानसे संसारस छुटाता है, अतः आत्मपरसमुद्धार यह गुण परोपदेशकपनेसे मुनिको मिलता है, आज्ञागुण-"जिनमतपर प्रीति रखनेवाले मोक्षच्छु मुनिश्रीने नियमसे हितोपदेश करना चाहिये " ऐसी श्रीजिनेश्वरकी आज्ञा है उसका पालन धर्मोपदेश देनसे होता है. वात्सल्य प्रभावना- परोपदेशसे वात्सल्य और प्रभावना इन गुणोंका लाभ होता है. अर्थात् सार्मिक बांधवोंपर प्रेम व्यक्त होता है तथा उनका अज्ञानांधकार दूर करनेसे प्रभावना गुण भी प्राप्त होता है. भक्ति-जिनवचनका अभ्यास करके परोपदेश करनेवाले मुनिका जिनवचन में अनुराग प्रगट होता है. अव्युच्छित्ति-'तिसु चिदित्ति तित्थं ' सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंमें रहने वाला जो मोक्षमार्ग उसको त्रिस्थ किंवा तीर्थ कहते हैं, अथवा जिनागम भी तीर्थ है क्योंकि वह भी रत्नत्रयका वर्णन करने में तत्पर रहता हैं. उस को त्रिस्थ अथवा तीर्थ कहते हैं. धर्मोपदेशदानसे श्रुत और मोक्षमागकी परंपरा टिक सकती है. शिक्षाका प्रकरण समास हुआ. लिंगाणानंतरं शानसंपत्तिः कार्या, ज्ञानसंपादि वर्तमानन विनयोऽनष्ठातव्यः । स च पंचप्रकार इन्याह विणओ पुण पंचविहो गिट्टिो णाणदसणचरिते ।। तबविणवो य चउत्थो चरिमो उबयारिओ विणओ ॥ ११२ ॥ विनयो दर्शने जाने चारित्रे तपसि स्थितः ॥ उपचारे च कर्तव्यः पंचधापि मनीषीभः ॥ ११३ ।। विजयोदया-बिनयन्यपनयति यत्कर्माशुभं नहिनयः । तथा योक्त----" जहा विणदि कम्म अविहं बाउरेगा मोक्खोय" रति । पुष पश्चात् जिनवचनाभ्यासोत्तरकालें । पंचविहीं पंचमकारः । णिहिहो निर्दियः। गाणदमणचरि से विषयलनणय सामीन शानदर्शनचारित्रचिपन्यः ॥ तववियो य तपसि विनयश्च ॥ चदन्थो चतुर्थः । चरमो अन्न्यः॥ उधयारिओ विणयी उपचारविनयश्चेति । ___ अhण लिंगमादाय समभ्वस्तश्रुतेन तत्फलभूतो मोक्षांगतया बिनयोऽनुष्टयः इति तत्प्रपचार्थे गाथास्त्र योविंशतिमादिशति ॥ तत्र तावन्निरुक्तिगम्यं विनयस्य सामान्वलक्षणं विषयभेदात्तदेदांश्च निर्देष्टुमाइ मूलारा-विणओ-अशुभकर्माणि विनयत्यपनयतीति विनयः । इति निरुक्तिगम्यमपि तल्लक्षणं श्लोफेनोच्यते २५९
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy