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________________ गुल्टाराधना १२८६ अर्थ — चकरेको तुरुष्कतैल पिलानेपर भी उसके शरीर से दुर्गंध ही निकलता है अर्थात् वह अपने प्राकृतिक गंधका त्याग नहीं करता है. तुरुष्कतैल अतिशय सुगंध रहता है परंतु चकरेके प्राकृतिक गंधमें उससे कुछ भी फरक नहीं होता है. वैसे अष्ट साधु संयम सहित होनेपर भी इंद्रिय कषायरूपी दुर्गंधका त्याग नहीं करता है. भुजतो व सुभोयणमिच्छांदे जध सूयरो समलमेव ॥ त दिक्खिद वि इंदियकसायमलिणी हवदि कोइ ॥ १३१८ ॥ मुक्त्वापि कथन ग्रंथं कषायाक्षं न मुंचति ॥ हित्वापि कंचुकं सर्पों विजहाति विषं नहि ।। १३६५ ।। दीक्षितोप्यधमः कचित्कषायाक्षं चिकीर्षति ।। शूकरः शोभने रत्नैर्नल तोप कांति १३६६ ॥ विजयोदय-भुजतो विसुभाषणं भुजानोऽपि शोभनमाहार सुसरो जय मंत्र का स ममेवाभिपति चिरंतनाभ्यासात् । तह तथा । दिलिदो वि दीक्षिवोऽपि कृतपरिहसंस्कारोऽपि । कोइ कश्चित् । इंदियक सामणि यदि इंद्रिय कथायाख्याशुभपरिणामोपनतो भवति भयो जनः स्युपायतया परित्यकेंद्रिय पायोऽपि गार्हस्थ्यपरित्यागकाले पुनरपि तत्रापततीति ॥ गुरुपदेशादधिगतदुःखनिच् मूलारा --- समलं पुरीषं ॥ अर्थ- जैसे सूकर उत्तम आहारका भोजन करता हुआ भी विष्ठा का ही अभिलाष मनमें धारण करता है क्योंकि उसको दीर्घकालसे विष्ठाभक्षणका अभ्यास रहता है वैसे जिसने दीक्षा धारण की है अर्थात् व्रतका स्वीकार जिसने दीर्घ कालसे किया है ऐसा भी कोई मुनि इंद्रिय और कपाय रूप अशुभ परिणामोंसे परिणत होता है. गुरूका उपदेश सुनकर दुःख नाश करनेके उपायका ज्ञान होनेपर इंद्रिय और कषायों का त्याग करता है. गृहस्थावस्थाका त्याग करनेपर पुनः वह मुनि उसीमें पडता है. अनेकांतोपन्यासेन दर्शयसि सुरिरुचरबंधन आश्वा ६ १९८६
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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