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________________ दुलाराधना आश्वासा मूलारा-परिषट्टियोवहाणो समंताबहरहरुकर्षितमुपधानमवग्रहो येन । परिवट्टिदाबहाणो इत्यत्र पाठे परिवतिप्रमादपरिहार इत्यर्थः । वियव प्रकटीभूताः । पहारु स्नायुः। पामुलि पास्थिसंहतिः । कडाहो कटाक्षदेशः । नितंवसभीपदेश इत्यन्ये । सटिहिदतणुसरीरो सनुल लेखनारंभात्प्रागपि तपोविशेषैः कृशं यच्छरीरं सदेव तदा सम्यग्यशीकृतं यस्य येन वा ।। अर्थ-जिसने प्रतिदिन अनशनादि बाह्य तपोंके नियम घृद्धिंगत किये हैं; अथवा जिसने प्रतिदिन प्रमा। दका परिहार आंधकाधिकरूपसे बहाया है, बाह्य तप करनेसे छोटी और बडी सिरायें, शरीरकी दोनो पसवाडे की हड्डियां, और नत्रके अस्थि स्पष्ट दीख रही है. ऐसा वह क्षपक निर्दोष शरीरसल्लेखना करके अध्यात्मध्यानमें तत्पर होता है अर्थात् क्षपक शरीर सल्लेखनाके साथ कवाय सल्लेखना भी प्रमादका नित्य त्याग कर करता है. एवं कदपरियम्मो सनंतरबाहिरम्मि सल्लिहणा।। संसारमोक्खबुद्धी सव्वुवग्ल्लिं तवं कुणदि ॥ २७० ॥ पाहाभाभ्यंतरों कृत्वा योगी सल्लेखनामिति ॥ संसारयजनाकांक्षी प्रकृष्ट कुरुले तपः ॥ २७० ।। इति सहदवनासूत्रम् ॥ विजयोदया-पर्व कदाग्यिम्मो पषमुजन कमण छानपरिकस।सम्मंतरवाहिरम्मि सलिहणो अभ्यंतरसल्लेगानासद्वितायां वायरलेखनायां । संसारमोफखबुद्धी संसारत्यागे कृतयुद्धिः । सम्वुवरिलं तवं सर्वभ्यस्तपरेभ्यः उत्कृष्ट तपश्चर ति | सल्लेहणा सम्मत्ता। मूलारा - संसारमुक्खयुद्धी संसारत्यागतमतिः । सम्वुवरित सर्वेभ्यस्तपोभ्य उत्कृषं धर्मशुक्भ्यानलमगं । सल्लेखना सूत्रत: १६ अंकतः । ६६ ।। अर्थ-इसतरहसे शरीर सलखना और कषाय सरवनामें जिसने बाबतपका आचरण कर अभ्यास किया है संसारका न्याग करनेमें जिसने अपनी बुद्धि एकाग्र की है ऐसा वह क्षपक मर्वतपास उत्कृष्ट तप अर्थात उत्कृष्ट धर्मध्यान और उत्कृघ शुक्लध्यान करता है... ४८८ SHABAR
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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