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________________ लाराधना आश्वासा १७२३ - - - संसक्तः भवसष्णो अवसना, पार्थस्थसंसर्गात्स्वयमपि पार्श्वस्था, कुशीलसंसर्गात्स्वयमपि कुशीलः, यः स्वरद संपर्कास्वयमपि स्वच्छंदवृत्तिः । यथाशंदो निरूप्यते-उत्सूत्रमनुपदिष्ट स्वेच्छाविकल्पितं यो निरूपयति सोऽभिधीयते यथाछंद इति । तद्यथा वर्षे पतति जलधारणमसंयमः । भुरकर्तरिकादिभिः केशापनयमप्रशंसनं आत्मधिराघनान्यधा भवतीति । भूमिशय्या तृणपुंजे वसतःअवस्थितानाशाति,उद्देशिकादिके भोजनेऽदोषः प्रामं सकलं पर्यटतोमहवीजीव. निकायविराघनेति, गृहामपुभोजनमदोष इसि कथन, पाणिपात्रिकस्य परिशातनदोषो भवतीति निरूपणा, संप्रति यथोक्तकारी न विद्यत इति च भाषणं पवमादिनिरूपणापराः स्वयंवा इत्युक्यते । मूलारा-- किं पुण किं पुनर्न परिपतंति । सर्वदा येऽवसन्नादिरूपतां धृत्वा पश्चिमकाले एच सन्मार्गमनुसृतास्ते संस्तरारूढाः संतो बेदनावशात्प्रासंक्लेशास्ततः प्रध्यवंत एवेत्यर्थः। ओसण्णा चारित्रेऽवमीदन्तः पथिका इय पंके । यथोक्तमुनिकर्मस्वालस्थादिना पद पदे रखलन्त इत्यर्थः। णिकच दीक्षामहणारभतिचरमकालं यावत् । निच्चपामस्था निरतिचारसंयममार्ग जानती पि ये सदा तदवृत्तयो कानन्द संगता न च निरतिचारसंयमाः किंतु संयममार्गपाव तिष्ठन्ति । यथा केचित् प श्य तो असे बलिदश झा विना ये निषेयते ते पावस्था इति सात्पर्य । कुमीला लोकप्रकट कुन्तितशीलाः । संसत्ता ये पियचाहिऐ प्रिवचारित्राः, अशियपारिने च अमिय चारित्राः । नटवदनेकरूपमाहिणोऽवस शादिसंसर्गात्स्वयमपि सहावभाज इति भावः ।। जधाईदा उत्सूत्रानुपदिष्टम्वेच्छाबिकस्पिन निरूपणापराः || अर्घ-क्या जो अबसन्न, पार्थस्थ, कुल, संसक्त और यथा छंद मुनि है वे अवश्य मन्मार्ग से भ्रष्ट नहीं होते हैं ! अवश्य ही भ्रष्ट होंगे. अर्थ-जसे कीचडमें फसहए और मार्गभ्रष्ट पथिकको अवसन कहते हैं उस को द्रच्यावसनभी कहते हैं. वैसे जिसका चारित्र अशुद्ध बन गया है ऐसे मुनिको भावासन कहते हैं. यह मुनि पिंछी कमंडस्वादिक उपकरणोंमें, आसक्त होता है. इसति और सस्तरकी शोधना करनमें प्रमादी बनता है. स्वाध्यायमें विहारभूमिशोधनमें, आहारकी शुद्धि में, ईर्यासमित्यादिक समितिओं में, स्वाध्यायकालके अवलोकनमें स्वाध्यायको समाप्ति करने में तत्पर नहीं होता है. अर्थात् उपयुक्त कार्यों में वह प्रमादी बनता है. आवश्यकादि कार्यों में आलस्य करता है. इतर मुनिओंकी अपेक्षा से यह अयसन्नमुनि आवश्यकोंका अधिक भी पालन करता है परंतु वचन और काय-शरीरसेही करता है. मनसे उनका पालन नहीं करता है. इस प्रकार वह चारित्रसे भ्रष्ट होता है इसलिये ऐसे मुनिको अत्रसम्म कहते हैं, १७२३
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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