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________________ DOGGER500AM पृलाराधना आश्वास: १८५४ खमदमणियमधराण धुदरयसुहदुक्खविप्पजुत्ताणं ॥ णाणुज्जोदियसल्लेहणम्मि सुणमो जिणवराणं ॥ २१७ ॥ अर्थ-असुर, सुर स्वर्गवासी देव, मनुष्य, किन्नर, सूर्य, चंद्र किंपुरुष इनके द्वारा जिनके चरण पूजे गये हैं, जो त्रैलोक्य नाथ हैं ऐसे श्रचिीर जिनेश्वर मेरेको रत्नत्रयका लाम करदे । अर्थ-क्षमा, जितीन्द्रयता, और नियमोंको धारण करनेवाले, कर्ममलको नष्ट करनेवाले, शारीरिक और मानसिक सुखदुःखसे राहत, केवल ज्ञानसे जिन्होंने सम्लेखनाको प्रगट किया है ऐसे संपूर्ण जिनश्वरोको मे नमस्कार करता हूँ. श्रीमदपराजितसूरेष्टीकाकृतः प्रशस्तिः नमः सकलतत्वार्थप्रकाशनमहौजसे ॥ भव्यचकमहाचूडारत्नाय सुखदायिने ॥ १॥ श्रुतायाज्ञानतमसः प्रोद्यद्धमाशवे तथा ॥ केवलज्ञानसाम्राज्यभाजे भव्यकबंधवे ॥ २ ॥ चंद्रनंदिमहाकर्मप्रकृत्याचार्यप्रशिया भारतीयसूरिचूलामणिना नागनंदिगणिपादपोपसयाजातमतिलेश्वन बखदेवसूरिशिष्येण जिनशासनोद्धरणधीरे लब्धयशःप्रसरेण अपराजितमरिणा श्रीनागनंदिगणिनायचोधिनेन रचिता आराधनाटीका धीविजयोदयानाम्ना समाप्ता॥ ॥एवं भगवती आराधना समाप्ता ।। टीकाकार श्रीअपराजितसूरीकी प्रशस्ति. अर्थ-संपूर्ण जीवादि तत्वाधाको प्रमट करने में जो अतिशय समर्थ है जो भन्यसमुदायको महाचूदामणिके तुल्य है और जो सुखदायक है ऐसे श्रुतज्ञानको मैं नमस्कार करता हूं अर्थात् श्रुतकवलीको मैं वंदन करता हूं. १८५४
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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