________________
इलाराधना
प्रस्तावना
चमपात्रगतं तोयं घृतं तेल अवर्जयेत् ॥
नवनीतप्रसूनादिशाक नावात्कदाचन ।। यह रत्नमालापंथ किसी भट्टारका बनाया होगा, शिवकोट्याचार्यको नहीं है ऐसा पं. नाथुराम प्रेमीजी लिखते है तथा उसकी सिद्धिके लिये वे इस प्रकार कहते हैं. रत्नमाला गंधर्म मुनिराज इस पंचम काल में बन में न रहकर गांव शहर बगैरेह स्थानों में जो जिन मंदिर हैं उनमें रहे ऐसा विवेचन है. और यह शिथिलाचारका विवेचन है. परंतु पेसा लिखनेसे क्या शिथिलाचार हो गया यह इमें मालम नहीं होता है. श्रीसमतभट्टाचार्य भी प्रावकों को मुनिओंक | लिये वसतिकादान देना चाहिय ऐसा उपदेश करते हैं. तथा बसतिका ग्रामसे दूर नहीं होनी चाहिये इत्यादि विस्तीर्ण वर्णन खुद भगवती आराधनामें भी आया है. अत: इसमें शिथिलाचारका पोषण कैसे हो गया ?
इस कलिकाल के मुनिओको समाधिमरण सथ जाय इस हेतृसे शिवकोट्याचार्यजीने भक्तप्रत्याख्यान मरणका ही मुख्यतासे भगवती आराधना में निरूपण किया है.इंगिनीमरण और पायोपगमनमरणका इस कलिकालमें निषेध किया है. अतः वसविकामें रहने की जो आशा शिवकोटि आचार्यने दी है वह समंतभद्रादि प्राचीन आचायॉ पंथों में भी पायी जाती है. इसमें शियिलाचार नहीं है,
रत्नमाल| अंघमें नीचे लिखे दो श्लोक गृहस्थके स्नामाकरणमें आये हैंपाषाणोत्स्फुटित तोयं घटीयंत्रेण ताडितम् !! सद्यः सन्तप्तवापीनां प्रासुकं जलमुच्यते ।।
देवर्षीणां प्रशौचाय स्नानाय च गृहार्थिनाम् । अप्रामुक परं वारि महातीर्थजमप्यदः ।।
पाषाणके उपर जोरसे गिरनेवाला जलप्रपातका पानी, घटीयंत्रसे ताडित जल, गरम बावडियों का जल ये प्रासुक हैं. मुनि इस जलसे शौच क्रिया कर सकते है तथा इस जलमे गृहस्थ स्नान कर सकते हैं.
परंतु नाथुरामजी प्रेमी कहते हैं कि यह वर्णन किसी भट्टारक महाराजने ही किया होगा शिषकोट्याचार्यका नहीं हो सकता है. परंतु हम ऐसा कहते हैं कि यह कथन शिवकोट्याचार्यने ही किया है और इसमें शिथिमाचार नहीं है. जैसा उपर्युक्त वर्णन शिवकोटी आचार्यने किया है इसी प्रकारका वर्णन अमितगति आचार्यने भी सुभाषितरत्नसंदोह प्रथमें चारित्र के प्रकरणमें किया है. शिवकोटि आचार्य के समान अमितगति आचार्य भी भट्टारफ नहीं धे, एकाद समय कमंडलुभे गरभ जळ नहीं हो तो उपरि शोक वर्णित जलसे मुनि शौषकिंवा कर सकी हैं.