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________________ मूलाराधना आश्वारा तत्तो शंतरसमए उम्पज्जदि सब्बपञ्जयणिबंध 11 केवलणाणं सुद्धं तध केवलदसणं चैव ।। २१.३ ॥ हुत्वकत्वविताना धातिकमन्धन सुधीः।। वर्शकं सर्वभावाना केवलज्ञानमश्नुते ।। २१७७ ।। विजयोक्या-सच्चो शानदर्शनापरणांतरायक्षयात अनंतरसमय उत्पद्यते केवलज्ञानं सर्षपर्याया विशेषकपाणि तत्र प्रतिबद्धं परिन्छेनुकत्वेन शानस्याशियों वस्तुभविशेषता परिच्छी नाम सामान्यरूपस्य सुगमस्या दिन्याख्यातं भवति । केवल दिय सहायानपेक्षयात केवलमसहाय ज्ञानं रागादिमन्दाभावात् । शुद्ध तथा केयलदर्शन घ॥ जीवन्मुक्तिप्रादुर्भापक्रमोपक्रमवर्णन-इत उत्तर प्रबंधन भय जीवन्मुक्ति गावाचविंशत्यानुवर्णविन्यन्नादौ फेवलज्ञानदर्शनोत्पप्तिगुणातिशयसंपत्ती वर्गपति-- मूलारा--तसो ज्ञानदर्शनावरणांजरा यक्ष यान । समयजयणिपद्धं सर्वेषां व्याणां पर्यायात्रिकालविष पाणि विशेषरूपाणि तम निबद्ध परिच्छेदकत्वेन संचद्रं । पोन बानुगतरूपरिच्छेदो ज्ञानर यानिशयो निरूप्यते । सामान्यरूपपरिच्छेदस्य सुगमवादनुक्तिः । फवल इंद्रियाद्य पेनत्वादतहार्य । सुद्धं रागादिनलरहितम् । अर्थ-तदनंतर समय में संपूर्ण द्रव्योंके सम्पूर्ण त्रिकालवी पर्यायोंको विषय करनेवाला. रागादिदोपका अभाव होनेसे निर्मल एसा केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होता है. वस्तुका सामान्य स्वरूप सुगम हैं. उस को जानने में ज्ञानका अतिशय प्रगट नहीं होता है. चस्नुके विशेष रूप पयायोंको जानने में ज्ञान का अतिशय प्रगट होता है. अतः 'सच्चपज्जयणिबन्धं ऐसा गाथामें पद है. इन्द्रियो की सहायताके बिना यह ज्ञान होता है इसलिये इस को केवलज्ञान कहते हैं. केवलज्ञान क समान केवलदर्शन मी रागादिमलोंसे रहित और इंद्रियापेक्षारहित है. dhakashNHALALANDMIN अन्वाघादमसंदिदमुत्तमं सम्बदो असंकुडिदं॥ एयं सयलमर्णते अणियत्तं केवलं पाणं ।। २१०४ ॥ अनंतमप्रतीबंध निःसंकोचममिंद्रियम् ।। निःक्रम केवलज्ञान निकषायभकल्मपम् ॥ २१७८ ।। wered १८१६
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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