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मूलाराधना
आश्वास
स्थानमें भगवानका समवसरण आया था यह समझनेकेलिये चिन्हरूप जो मानस्तंभ स्थापन करते हैं वह यहां तीर्थ शब्दका अभिप्राय समझना चामिका अदादिन र मुनिराले समातियानो लिपिदिका कहते हैं. जन्मादि स्थानोंको मुनिराज प्रथम शाखोंस जानने है और अनंतर उनकी बंदना करनेके लिय जाने हैं, तब उनका सम्यग्दर्शन अतिशय निर्मल हो जाता है. अदि मुनिराज इमंशा अनेक देशोंमें भ्रमण करते हैं तब वहां के जन्मादि स्थानीका दर्शन कर अतिशय श्रद्धालु होते हैं, जैसे कोई आदमी किसी सुंदर स्वीका स्वरूप वर्णन करता है तब कोई श्रोता वह वर्णन सुनकर परोक्षरूपसे उसका परिज्ञान कर लेता है और उसको देखने की अभिलाषा उत्पन्न होती है. यदि यह स्त्री उसको दृष्टिगोचर होती है तो उसके विषयमें उसको महती श्रद्धा उत्पन्न होती है. वैसे आगमसे जन्मादि स्थानोंको जानकर जब मुनि उनको साक्षात् देख लेते हैं तब उनको महाश्रद्धान उत्पन्न होता है. अथवा जब तीर्थकर उत्पन्न होते हैं तब अनियत विहार करने वाले यति उनके जन्मादिक कल्याणोंको साक्षात् जानकर अपने सम्यग्दर्शनमें निमलता उत्पन्न करते हैं.
अब यहां तीर्थकरोंके जन्मादि कल्याणकोका विस्तारसे टीकाकार अपराजित सूरिने वर्णन किया है. उस का भावार्थ हम यहां लिख देते हैं.
तीर्थकर तीनज्ञानके धारक रहते हैं. जब स्वर्गमें उनका आयुष्य समास होता है तब वे माताके उदरमें आते हैं. इंद्रादिदेव आकर उनका गर्भमहोत्सव करत हैं, तीर्थकरका जन्माभियक महोत्सव भुवनरूपगृहमें जमा हुवा अज्ञानरूप अंधकारको नष्ट कर देता है. अमृतके पानसे प्राणिऑको आरोग्यलाभ होता है वैसे जन्म महोत्सवसे संपूर्ण प्राणी रोगमुक्त होजाते हैं.
देवांगनाओंका नृत्य देखनेम जैसा आनंद होता है वैसा इसके अवलोकनसे भी सर्व जगत आनंदमय होता है. प्रियवचनंक समान यह महोत्सव मन में प्रसन्नता उत्पन्न करता है. प्रास्त पुण्यक समान यह अगणित पुष्यको | समर्पण करता है. लक्ष्मी अपने परिचारिकाओंके साथ इस उत्सवको आश्चर्यमे देखती है. गुलक जानीके देव
आकाशमसे पुष्पवृष्टि करते हैं. तम चारो तरफसे भौरें आकर गुंजारव करते हैं. इस उत्सबके ममय नगारे और शंखांकी ध्वनि सतत हवा करती है. इनके ध्वनीम जगतका अवकाश भर जाता है, देवांगनायें नृत्य करती है. मानो उनको जीतनके लिय ही सौधोंके शिरवरोंकी पचरंगयुक्त पताकायें भी नृत्य करती हैं. जन्माभिषकोत्सबके
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