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गुलाशचना
অস্থায়ী
त्रियोंकी तर्फ देखना मेरेको योग्य नहीं है. उनका मधुर गीत सुनना योग्य नहीं है, मेरा शरीर ग्लानि उत्पन्न करनेवाला है अतः उससे उनके साथ रतिक्रीडा करना क्या योग्य है। इस तरह भावनाओंसे अनादरगुण उत्पन्न होता है. अथवा इस निर्वखतासे शारीरसस्वमें व विषयसुखमें अनादर उत्पन्न होता है.
विषयसुखको छोड़कर शरीरसुख भिन्न पदार्थ नहीं है इस प्रश्नका उत्तर इस तरह समझना । शरीरके | दुःखोंका अभाव होना शरीरसुख कहलाता है व इंद्रियोंके विषयोंसे जो मनमें प्रेम आल्हाद उत्पन्न होता है वह विषयसुख है। इस प्रकार इन दोनोंमें महानभेद है.
मर्वत्र आत्मवशता-यह गुण भी प्राप्त होता है. मुनीके पास कोई परिग्रह न होनेसे वे स्वेच्छासे बैठते है, भाने हैं तथा सोते हैं. बैठने उठने में मेरी अनुक वस्तु नष्ट हुई, अमुक वस्तु मेरेको चाहिये इस प्रकारकी चिन्ता उनको होती नहीं. अतः परिग्रहविषयक परतंत्रतासे वे छूट गये है. मेरे परिग्रहका विनाश हो जायगा ऐसी भीति यदि मुनिको उत्पन्न हो जावेगी वो वे अपनेको अयोग्य तथा उद्गमादिदोषोंसे सहित, प्राणिसंयमका नाश करनेवाले ऐसे आसन शयनादिकोंका संपादन करेगें. परिग्रहको चौरादिक हरण करेंगे इस भीतीसे अस स्थावर जीवोंको जिसमें दुःख पोहोचेगा ऐसे मार्गसे वे जावेगे. परंतु जो परिग्रहरहित है ऐसे मुनिराज उपर्युक्त दोषसे अलिम रहते हैं.
परिसह अधिआसणा-पूर्वकर्मकी निर्जरा करनेकी इच्छा जिनको है ऐसे मुनीको परीषद सहन करनेही नाहिये. शुधादिक बावीस परिपह हैं. यद्यपि परिषह शब्द सामान्यनया प्रयुक्त किया है तो भी यहां अचेलत्वका प्रकरण हानी उनके अनुरूप परिपहोंका ग्रहण हो आला है. इस लिये नग्नना, शीत, उष्ण, दंशमशक, इतने परिपहाको पहन करना चाहिये ऐसा अभिप्राय सिद्ध हुवा. जैसी निर्वम्रमुनीको शीत, उष्ण, दंशमशकोंसे पीडा होती है चमी वस्त्र ओडे हुए मनुष्यको होती नहीं है.
अचेलताया गुणान्तरसुचनाय माथा
जिणपडिरूवं विरियायारो रागादिदोसपरिहरणं ॥ इच्चेवमादिबहुगा अच्चलक्के गुणा होति ॥ ८५ ॥
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