SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1651
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलाराधना आचा १६३८ चाहिये. कषापयुक्त होकर प्राणीके दस प्राणोंका नाश करना हिंसा है. प्राणीओं को पीडा देनेवाला भाषण असत्य । कहा जाता है. लेने देनेका व्यवहार जिस वस्तूमें होता है ऐसी आपकी नहीं दीनी वस्तुलेना उसको चोरी कहते हैं. चारित्रमोहके उदयसे रागाविष्ट होकर परस्परोको स्पर्शन करनकी जो स्त्री पुरुषों में इच्छा उत्पन होती है उसको मैथुन कहते हैं. चेतन, अचेतन और मिश्र पदार्थों में और रागडेषादिकोंमें जो ममत्वयुद्धि होती है उसको परिग्रह कहते हैं. इन परिणामाको अविरति कहते हैं. क्रोध, मान, माया और लोभ ये 'चार कषाय है ये सब परिणाम गंग द्वेषमय है. रागद्वेषयोमर्माहात्म्य दर्शयति किहदा राओ रंजेदि गरं कुणिमे वि जाणुगं देहे ॥ किहदा दोसो वेसं खणेण णीयपि कुणइ परं ।। १८२७॥ जानंतं कुधित काय रागो रंजयने कथम् ।। बांधवं कुरुते द्रुष्ण षोहीक्षणतः कथम् ॥ ८१८ ॥ विजयोदया--किहदा गओ रजदि गार कथं नाचगागोजयनि नरं । कुणिमे विदेरे अन्यायदि, अनुगग. स्यायोग्य । जाणुग शरीराशुचिव जानतं अझ रंजयति सारे वस्तुनिन रंजवतीति न सफिचच हातारमशुचिम्पसार शारीरे रंजयतीत्येतदभुतमिति भावः, दोसो दोपः,किडदा दोस कुणादि कथं तावदयं करोति। खणे क्षणमात्रणा | जीयपि पर बांधवमपि न अनेनापि वपमाहात्म्यमारवायत । रागाश्रवानांध बंधून द्वेष्यान कशेतीनि ।। रागद्वेषयोमर्माहात्म्यमाह मुलारा किहदा कथमिति विस्मये । तावदिति वाक्यालंकारे । कुणिमे वि अशुन्यसारेपि । जाणुगं देहस्याशुचित्तमसारत्वं च जनामा हातारं अनुरागोऽयोग्येऽनुरंजयतीत्येतद्भुतं इति भावः । बस द्वेष्य णीय पि रागाश्रयं बंधुमपि ॥ अर्थ-यह शरीर अपवित्र है इसके ऊपर प्रीति करना योग्य नहीं है. परंतु यह रागभाव अज्ञजीचको इस शरीरपर अनुरक्त करता है. सार वस्तुमें इस जीवको अनुरक्त नहीं करता है. आर्य यह है कि विद्वान लोकों को भी अपवित्र और निःसार शरीरमें यह अनुरक्त करता है. यह रागभाव अपने निकट जनोको भी एक क्षणमें द्वेषयोग्य करता है. अर्थात् जिनके ऊपर प्रेम करना योग्य है उनके ऊपर भी यह द्वेष उत्पन्न करता है.
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy